________________ अनुवाद-जी-१ 335 632. दूसरा कार्य है-कल्प प्रतिसेवना अर्थात् सकारण, उसका प्रथम पद है-दर्शन के निमित्त, प्रथम षट्क है प्राणातिपात आदि तथा उसमें भी प्रथम है प्राणवध। 633. दर्शनपद को नहीं छोड़ते हुए पूर्वक्रम के अनुसार अठारह स्थानों को संचरित करना चाहिए। इसी प्रकार ज्ञान आदि प्रत्येक पद के साथ भी इन अठारह स्थानों का संचरण होता है। 634. कल्प प्रतिसेवना के चौबीस भेदों के साथ इन अठारह पदों का तथा दर्प के दश भेदों के साथ भी इन अठारह पदों का संचरण करने पर होने वाली संख्या को जानना चाहिए। 635. दर्प से 180 तथा कल्प से 432 गाथाएं होती हैं। इन दोनों को जोड़ने पर 612 गाथाएं होती हैं। 636. (वह आने वाला मुनि) आलोचना करने वाले की प्रतिसेवना और आलोचना की क्रमविधि को सुनकर, उसका अवधारण कर, प्रतिसेवक का आगमज्ञान, पुरुषजात अर्थात् वह अष्टम तप से भावित है या नहीं, उसकी व्रतपर्याय और वय-पर्याय, बल-शारीरिक सामर्थ्य और क्षेत्र कैसा है, इन सबकी अवधारणा करके आलोचना देने वाले अपने आचार्य के पास प्रस्थित होता है। 637. अपने देश में जाकर वह मुनि आलोचना करने योग्य सब बातों को आचार्य को बताता है, साथ ही आलोचना करने वाले मुनि की पर्याय, बल और क्षेत्र आदि के बारे में भी बताता है। 638. वह व्यवहार विधिज्ञ आचार्य गूढ पद से आलोचित अतिचार को अनुमान से जानकर श्रुतोपदेश के अनुसार प्रायश्चित्त निर्धारित करके उसी शिष्य को आज्ञा देते हैं कि तुम जाकर उनको यह प्रायश्चित्त दो। 639. प्रथम दर्प लक्षण वाले कार्य सम्बन्धी दशविध आलोचना को सुनकर आलोचनाचार्य यह निर्धारित करते हैं कि तुम्हारी आलोचना नक्षत्र'-मास प्रायश्चित्त विषयक है अतः शुक्ल' अर्थात् उद्घात मास (लघुमास) में पणग पांच दिन का तप करो। 640. प्रथम दर्प लक्षण वाले कार्य सम्बन्धी दशविध आलोचना को सुनकर आलोचनाचार्य यह निर्धारित 1. यहां नक्षत्र शब्द मास अर्थ का सूचक है। इसका तात्पर्य है कि एक मास जितना प्रायश्चित्त प्राप्त हुआ है। जीतकल्पचर्णि की विषमपद व्याख्या में नक्षत्र शब्द की व्याख्या में अन्य आचार्य का मत प्रस्तुत किया है-चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और तारा-इन पंचविध ज्योतिष्चक्र में चौथा स्थान नक्षत्र का है अत: यहां तात्पर्य है कि चौथे ब्रह्मचर्य व्रत में पीड़ा-अतिचार का सेवन हुआ है। कुछ आचार्य मानते हैं कि नक्षत्र शब्द से मूलगुण में विराधना का संकेत है। 1. व्यभा 4490 मटी. प.८७; नक्षत्रशब्देनात्र मासः सूचितः, मासे मासप्रमेयप्रायश्चित्तविषयो भवतः। २.जीचूवि पृ. 36; नक्षत्रे कोऽर्थः-चन्द्रादित्यग्रहनक्षत्रतारकभेदतः पंचविधज्योतिश्चक्रमध्ये नक्षत्रभेदश्चतुर्थस्थानी। अतस्तेन चतुर्थव्रतगोचरा पीडा सूच्यते-इत्येके व्याचक्षते। 2. यहां शुक्ल शब्द पारिभाषिक है, इसका अर्थ उद्घात मास-लघुमास है तथा कृष्ण का अर्थ अनुद्घातगुरुमास है। चूर्णि की विषमपद व्याख्या के अनुसार शुक्लमास शब्द से उत्तर गुण की विराधना निर्दिष्ट है तथा कृष्णमास शब्द से मूलगुण की विराधना गृहीत है। .१.व्यभा 4490 मटी. प.८७;शुक्लेति सांकेतिकी संज्ञेति उद्घातं मासं तपः कुर्यात्। २.जीचूवि पृ. 36 /