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________________ अनुवाद-जी-१ 333 611. आचार्य, असमर्थ, रुग्ण, बाल और वृद्ध को जैसे समाधि हो, वैसी पंचक यतना' से वस्तु की याचना करके देता हुआ मुनि शुद्ध होता है। 612. प्रयोजन होने पर असहिष्णु राजा आदि को दीक्षित करना शुद्ध है, जैसे-कारणवश आर्यवज्र को दीक्षित किया गया। कारण होने पर वृद्ध भी दीक्षित होता है, जैसे आर्यरक्षित ने वृद्ध पिता को दीक्षित किया। 613. उदग-प्लावन, अग्नि, चोर, श्वापद आदि भयों में स्तम्भनी विद्या का प्रयोग, पलायन तथा वृक्ष पर आरोहण करना कल्प प्रतिसेवना है। कान्तार में भक्तपान का अभाव होने से प्रलम्ब फल आदि का सेवन करना कान्तार हेतुक प्रतिसेवना है। आपत्ति में द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव आदि चार प्रकार की आपदाएं जाननी चाहिए। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव सम्बन्धी आपदा में शुद्ध द्रव्य प्राप्त न होने पर की जाने वाली प्रतिसेवना। 614. कोई मद्यपान का व्यसनी गायक दीक्षित हो जाए तो वह गीतव्यसनी मुनि यतनापूर्वक मदिरा को ग्रहण करके गाता हुआ शुद्ध होता है। (यह व्यसन सम्बन्धी कल्पिका प्रतिसेवना है।) 615. चौबीस कल्पविषयक किसी प्रयोजन के उपस्थित होने पर आगाढ़ ज्ञान, दर्शन और चारित्र का सालम्ब प्रतिसेवी कदाचित् प्रशस्त प्रयोजन सम्पन्न करने में समर्थ हो सकता, यह कल्पिका प्रतिसेवना है। 616. यह चौबीस प्रकार की कल्पिका प्रतिसेवना कही गई। अब मैं संक्षेप में इनकी चारणा के बारे में कहूंगा। 617. दर्प और कल्प प्रतिसेवना को स्थापित करके दर्प प्रतिसेवना के दश पद तथा कल्प प्रतिसेवना के चौबीस पदों को यथास्थान उन-उन विभागों के नीचे स्थापित करना चाहिए। तत्पश्चात् उन दस और चौबीस पदों के नीचे अठारह पदों (व्रतषट्क) आदि की स्थापना करनी चाहिए। 618, 619. प्रथम कार्य अर्थात् दर्प प्रतिसेवना, प्रथम पद अर्थात् निष्कारण दर्प (दशविध दर्प प्रतिसेवना का प्रथम भेद) से तथा प्रथम षट्क के अन्तर्गत प्रथम स्थान प्राणातिपात का आसेवन किया हो। इसी प्रकार 1. आचार्य आदि के लिए आहार-पानी का लाभ न होने पर पांच दिनों के प्रायश्चित्त-स्थान का आसेवन करके उनकी प्राप्ति करना / यदि इतने पर भी लाभ न हो तो दस दिन का यावत् चार गुरुमास के प्रायश्चित्त का आसेवन करके उनकी उपलब्धि करना। 2. निशीथ चूर्णि के अनुसार राजा, युवराज, श्रेष्ठी, अमात्य और पुरोहित-ये सब असहिष्णु होते हैं क्योंकि ये अंत-प्रान्त आदि खाने के अभ्यस्त नहीं होते। १.निभा 491 चू 1 पृ. 164; णिवो राया आदिसद्दातो जुवराय-सेट्ठि-अमच्च-पुरोहिया य एते असहू पुरिसा भण्णंति। .....अंतः-पंतादीहिं अभावितत्वात्। ३.आर्य वज्र बहुत छोटी अवस्था में दीक्षित हो गए थे। उस अवस्था में वे मनिचर्या के अनेक कार्य करने में असमर्थ थे। कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं. 18 / 4. कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं. 19 /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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