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________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श जिनप्रज्ञप्त भावों पर श्रद्धा न करता हुआ दोष-सेवन करके निधि-प्राप्ति की भांति पुलकित होता है, उसका प्रायश्चित्त बढ़ता चला जाता है। श्रमण के आधार पर भी प्रायश्चित्त-दान में तरतमता आ जाती है। पार्श्वस्थ को जिस अपराध पद में जितना प्रायश्चित्त प्राप्त होता है, उसी अपराधपद में यथाच्छंद का प्रायश्चित्त वृद्धिंगत हो जाता है। जैसे पार्श्वस्थ को लघुमास तो यथाच्छंद को चतुर्लघु प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। पार्श्वस्थ को चतुर्लघु तो यथाच्छंद को चतुर्गुरु प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। आचार्य मलयगिरि ने यथाच्छंद की प्रायश्चित्त-वृद्धि के ये कारण बताए हैं-आगम विरुद्ध आचरण और अधिक दोषयुक्त कुमत की प्ररूपणा। वैदिक परम्परा में भी सापेक्षता से दण्ड देने का विधान है। गौतमधर्मसूत्र के अनुसार पुरुष की शारीरिक शक्ति, अपराध और अपराध की पुनरावृत्ति का ज्ञान करके दण्ड देना चाहिए। मनुस्मृति में भी इसी तथ्य की स्वीकृति है। प्रतिसेवना प्रतिसेवना का अर्थ है-दोष का आचरण। प्रतिसेवना को परिहारस्थान भी कहा जाता है क्योंकि प्रतिसेवना परिहार करने योग्य होती है। ओघनियुक्ति में प्रतिसेवना के निम्न एकार्थक मिलते हैं -मलिनता, भंग, विराधना, स्खलना, उपघात, अशोधि और शबलीकरण / बिना कारण अकुशल परिणामों से की गई प्रतिसेवना अशुद्ध तथा प्रायश्चित्तार्ह होती है। सालम्बन एवं कुशल परिणामों से की गई प्रतिसेवना शुद्ध होती है। प्रतिसेवना के भेद .. जीतकल्प सूत्र में प्रतिसेवना करने के चार कारणों का उल्लेख मिलता है। कारण में कार्य का उपचार करके वहां प्रतिसेवना के चार भेद मिलते हैं - 1. आकुट्टिका-जानते हुए हिंसा आदि करना। 1. व्यभा५१५,५१६। 6. व्यभा 39 / 2. व्यभा 875 मटी प. 116 / 7. जी 74 / 3. गौतम 2/3/48 पृ. 130; पुरुषशक्त्यपराधानुबन्धविज्ञाना 8. निशीथ भाष्य में 'आकुट्टिका' के स्थान पर 'अनाभोग' - -दण्डनियोगः। शब्द का प्रयोग है। दोनों शब्दों में शाब्दिक अंतर भी है। 4. मनु 11/209 ; शक्तिं चावेक्ष्य पापं च, प्रायश्चित्तं अनाभोग का अर्थ है-अजानकारी अथवा विस्मृति से प्रकल्पयेत्। अतिचार सेवन करना। ईर्या आदि समिति में अत्यन्त ओनि.७८८; विस्मृति से उपयुक्त न होने के कारण प्राणातिपात नहीं पडिसेवणा मइलणा, भंगो य विराहणा य खलणा य।। होता लेकिन उपयोगशून्यता के कारण प्रतिसेवना होती उवधाओ य असोही, सबलीकरणं च एगट्ठा।। है। (निभा 90 चू. पृ. 42)
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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