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________________ जीतकल्प सभाष्य . 2. दर्प-निष्कारण धावन, डेवन आदि करना। इसके दश भेदों की चर्चा आगे की जाएगी। 3. प्रमाद-कषाय, विकथा आदि प्रमाद से प्रतिसेवना करना। 4. कल्प-कारण उपस्थित होने पर अतिचार सेवन करना।' इसके चौबीस भेदों की व्याख्या आगे है। जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण के अनुसार दर्प प्रतिसेवना करने वाले के प्रायश्चित्त में एक स्थान की वृद्धि हो जाती है। यदि प्रमाद प्रतिसेवना से निर्विगय से तेले तक का प्रायश्चित्त मिलता है तो दर्प प्रतिसेवना में पुरिमार्थ से. चोले तक का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। आकुट्टिका प्रतिसेवना करने वाले को -- एकासन से लेकर पंचोले तक का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। यदि जानबूझकर प्राणातिपात आदि किया जाता है तो स्वंस्थान में मूल प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। कल्प प्रतिसेवना होने पर मिथ्याकार-मिच्छामि दुक्कडं " प्रतिक्रमण तथा तदुभय प्रायश्चित्त से शुद्धि हो जाती है। ... प्रकारान्तर से चारित्र की मलिनता और उसकी सम्पूर्ण समाप्ति के आधार पर प्रतिसेवना के दो भेद * मिलते हैं-देशत्यागी और सर्वत्यागी। जिस अपराध से मूल प्रायश्चित्त की प्राप्ति नहीं होती, जो चारित्र के देशभाग को मलिन करती है, जिससे ज्ञान, दर्शन और चारित्र का अंश बाकी रहता है तथा जिसमें उत्तरगुण से सम्बन्धित प्रतिसेवना की जाती है, वह देशत्यागी प्रतिसेवना है। इसके विपरीत जिससे मूल प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है, ज्ञान आदि का सम्पूर्ण नाश हो जाता है, सम्पूर्ण चारित्र मलिन या विनष्ट हो जाता है तथा जो मूलगुण से सम्बन्धित प्रतिसेवना होती है, वह सर्वत्यागी प्रतिसेवना कहलाती है। - पंचकल्पभाष्य में 'प्रतिसेवना कल्प' के बारे में विस्तृत वर्णन प्राप्त होता है, जिसमें प्रतिसेवना कब शुद्ध और कब अशुद्ध होती है, इसका विशद विवेचन है। मूलतः प्रतिसेवना के दो भेद हैं -दर्प एवं कल्प। ये दोनों प्रतिसेवनाएं दो-दो प्रकार की होती हैं-मूलगुण विषयक और उत्तरगुण विषयक। मूलगुण विषयक प्रतिसेवना प्राणातिपात आदि पांच प्रकार की तथा उत्तरगुण प्रतिसेवना पिण्डविशोधि आदि से सम्बन्धित होती हैं। दर्प प्रतिसेवना राग द्वेष के वशीभूत होकर निष्कारण दर्प से की जाने वाली दर्प प्रतिसेवना कहलाती है। निशीथभाष्य में इसे प्रमाद प्रतिसेवना भी कहा है। निष्कारण प्रतिसेवना करने वाला साधु अगाध सागर में 1. निशीथ भाष्यकार एवं चूर्णिकार ने इन चारों का समाहार 4. जी 76, जीभा 2271, 2272 / दर्प और कल्प-इन दो प्रतिसेवनाओं में कर दिया गया ५.निभा 481, 482, चू. पृ. 161 / है। (निचू 1 पृ.४२; तम्हा चउहा पडिसेवणा दुविहा भवति ६.पंकभा 2532-48 / दप्पिया कप्पिया य।) ७.व्यभा 41 / 2. जी 75 / 8. निभा 91 ; दप्पो तु जो पमादो। 3. जीभा 2269, 2270 / /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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