________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श डूब जाता है। इसके दश भेद हैं१. दर्प-बिना कारण व्यायाम, बाहुयुद्ध एवं धावन आदि करना। 2. अकल्प्य उपभोग-पूर्णतः अचित्त हुए बिना सचित्त ग्रहण करना अथवा अगीतार्थ द्वारा लाए गए अकल्प्य आहार का भोग करना। 3. निरालम्ब-ज्ञान आदि के आलम्बन बिना दोष सेवन करना अथवा अमुक साधु ने दोष सेवन किया है तो फिर मैं भी करूं तो क्या दोष है, ऐसा सोचकर दोष सेवन करना। 4. त्यक्त-असाध्य रोग में जिस अपवाद का सेवन किया, स्वस्थ होने पर भी उसी का प्रयोग करना। 5. अप्रशस्त-बल, वर्ण आदि की वृद्धि के लिए अशुद्ध भोजन का सेवन करना। 6. विश्वस्त-लोक और लोकोत्तर के विरुद्ध अकृत्य का सेवन करते हुए भी परप्रक्ष तथा श्रावक आदि से लज्जित नहीं होना। . 7. अपरीक्ष्य-संयम में लाभ-हानि का विमर्श किए बिना प्रतिसेवना करना। 8. अकृतयोगी-तीन बार एषणीय की गवेषणा किए बिना प्रथम बार या दूसरी बार में अनेषणीय ग्रहण __करना। 9. अननुतापी-दूसरों को परितापित करके अथवा पृथ्वीकाय आदि का संघट्टन, परितापन करके बाद में पश्चात्ताप नहीं करना। 10. निःशंक -अकरणीय कार्य करते हुए इहलोक और परलोक कहीं से भी भय या शंका नहीं करके प्रतिसेवना करना। कल्प प्रतिसेवना . कुशल परिणामों से दर्शन, ज्ञान आदि की वृद्धि हेतु जो प्रतिसेवना की जाती है, वह कल्प प्रतिसेवना है। इसे अप्रमाद प्रतिसेवना भी कहा जाता है। निशीथ भाष्य के अनुसार महामारी, दुर्भिक्ष, राजप्रद्वेष, भय, ग्लानत्व, भयानक अटवी, नगर-अवरोध आदि उपद्रवों की स्थिति में यतनापूर्वक यदि मूलगुण और उत्तरगुण विषयक प्रतिसेवना की जाए तो वह भी कल्प-प्रतिसेवना है। गीतार्थ परिस्थिति 1. आवनि 775 / / 2. तीन बार एषणीय की एषणा करने पर भी यदि एषणीय की प्राप्ति न हो तो चौथी बार अनेषणीय ग्रहण किया जा सकता है। 3. जीभा 589-99, विस्तार हेतु देखें निभा 463-73 चू. . पृ.१५७-५९। 4. चूर्णिकार के अनुसार कारण उपस्थित होने पर गीतार्थ, कृतयोगी और उपयुक्त साधु यतनापूर्वक जो प्रतिसेवना करता है, वह कल्प प्रतिसेवना है। (जीभा 2267, जीचू पृ. 25; कप्पपडिसेवणा नाम कारणे गीयत्थो कडजोगी उवउत्तो जयणाए पडिसेवेज्जा।) 5. निभा 458; असिवे ओमोदरिए, रायट्टे भये य गेलण्णे। अद्धाणरोधए वा, कप्पिया तीस वी जतणा।।