SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 72
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 70 जीतकल्प संभाष्य आने पर राग-द्वेष से मुक्त होकर कल्प प्रतिसेवना करता है अत: वह प्रायश्चित का भागी नहीं होता। माया के साथ सालम्बन प्रतिसेवना करने पर चारित्र का भेद होता है। व्यवहारभाष्य की पीठिका में आचार्य के संदर्भ में जो सालम्ब प्रतिसेवना की बात कही है, उसका संकेत कल्पिका प्रतिसेवना की ओर होना चाहिए। आचार्य के ग्लान होने पर वे इस आलम्बन से सावध चिकित्सा रूप प्रतिसेवना करते हैं कि स्वस्थ होकर मैं तीर्थ की परम्परा अविच्छिन्न रखूगा, सूत्र और अर्थ का अध्ययन करूंगा, तपोपधान में उद्यम करूंगा तथा गण की नीति पूर्वक सारणा-वारणा करूंगा, इस प्रकार ऋजुता पूर्वक सालम्ब प्रतिसेवना करने वाला आचार्य मोक्ष को प्राप्त करता है। भाष्यकार के अनुसार कारण उपस्थित होने पर यद्यपि कल्प प्रतिसेवना अनुज्ञात है फिर भी सावध होने के कारण निश्चय नय में वह अकरणीय ही है। कारण उपस्थित होने पर लाभ-हानि का चिन्तन करने वाले वणिक् की भांति सोच समझकर अकरणीय प्रतिसेवना में प्रवृत्त होना चाहिए। भाष्यकार कहते हैं कि अनुज्ञात होने पर भी कल्पिका प्रतिसेवना का वर्जन करने में आज्ञाभंग का दोष नहीं है। कल्प प्रतिसेवना का प्रयोग न करने से दृढ़धर्मिता, बार-बार दोष-सेवन न होना तथा जीवों के प्रति करुणा आदि गुण प्रकट होते है अतः कल्पिका प्रतिसेवना का प्रयोग सहसा नहीं करना चाहिए। जीतकल्पभाष्य तथा निशीथभाष्य में कल्पिका प्रतिसेवना के 24 भेद प्राप्त होते हैं१. दर्शन-दर्शन प्रभावक सिद्धिविनिश्चय तथा सन्मतितर्कप्रकरण आदि ग्रंथों को अधिगम करने हेतु की जाने वाली प्रतिसेवना। 2. ज्ञान-सूत्रार्थ को धारण करने में समर्थ न होने पर असंथरण की स्थिति में ज्ञान के निमित्त की जाने वाली प्रतिसेवना। 3. चारित्र-चारित्र के अन्तर्गत अनिर्वाह की स्थिति में एषणा एवं स्त्री सम्बन्धी दोष उत्पन्न होने वाले क्षेत्र में विहरण करते हुए होने वाली प्रतिसेवना। 4. तप-'आगे तप करूंगा' यह सोचकर घृत आदि का सेवन करना तथा विकृष्ट तप के पारणे में दोष सहित चावल की पेया आदि का सेवन करना। 5. प्रवचन-प्रवचन की प्रभावना एवं उसके रक्षार्थ गृहस्थ आदि को अभिवादन करना, जैसे-विष्णु 1. निभा 4811, 4817 चू पृ. 510,511 / 3. निभा 459, ४६०चू पृ. 155, 156 ; 2. व्यभा 183; कारणपडिसेवा वि य, सावज्जा णिच्छए अकरणिज्जा। काहं अछित्तिं अदुवा अधीतं, तवोवधाणेसु य उज्जमिस्सं। बहुसो विचारइत्ता, अधारणिज्जेसु अत्थेसु।। गणं व नीइए य सारविस्सं,सालंबसेवी समवेति मोक्खं / / / जति वि य समणुण्णाता, तह वि य दोसो ण वज्जणे दिट्ठो। दढधम्मता हु एवं, णाभिक्खणिसेव-णिद्दयता।।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy