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________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 71 अनगार ने एक लाख योजन की विकुर्वणा की थी। 6. समिति-आंख की ज्योति बिना मैं ईर्या की शुद्धि नहीं कर सकूँगा अतः आंख के उपचार हेतु सावद्य क्रिया करना। इसी प्रकार भाषा समिति और एषणा समिति आदि के बारे में जानना चाहिए। 7. गुप्ति-मन, वचन आदि की अगुप्ति होने पर मद्य आदि का सेवन करना। 8. साधर्मिक वात्सल्य-साधर्मिक वात्सल्य के लिए प्रतिसेवना करना। 9. कुल-कुल की रक्षा के लिए राजा आदि को वश में करने के लिए वशीकरण मंत्र आदि का प्रयोग करना। 10. गण-गण की रक्षा के लिए निमित्त आदि का प्रयोग करना। 11. संघ-संघ की प्रभावना के लिए चूर्ण, योग आदि का प्रयोग करना। 12-16. आचार्य, असहिष्णु राजा, ग्लान, बाल और वृद्ध की समाधि हेतु पंचक यतना से वस्तु की याचना करना। 17-21. उदक-प्लावन, अग्नि, चोर, श्वापदभय-इन चारों की भयपूर्ण स्थिति में स्तम्भिनी विद्या का प्रयोग, पलायन तथा वृक्ष पर चढ़ना आदि करना। 22. कान्तार–सघन अटवी में भक्त-पान के अभाव में प्रलम्ब आदि फल का सेवन करना। 23. आपत्ति-द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव सम्बन्धी आपदा में शुद्ध द्रव्य प्राप्त न होने पर की जाने वाली - प्रतिसेवना करना। 24. व्यसन-मद्यपान व्यसनी गायक के दीक्षित होने पर यतनापूर्वक मदिरा ग्रहण करना। दपिका और कल्पिका प्रतिसेवना में भेद दर्प प्रतिसेवना राग-द्वेष से तथा निष्कारण की जाती है। इसका प्रतिसेवी विराधक होता है। कल्पिका प्रतिसेवना में राग-द्वेष का अभाव होता है, यह सप्रयोजन की जाती है तथा इसका प्रतिसेवी आराधक होता है। अगीतार्थ कार्य-अकार्य अथवा यतना और अयतना को नहीं जानता हुआ जो प्रतिसेवना करता है, वह दर्प प्रतिसेवना है। यदि गीतार्थ भी दर्प प्रतिसेवना अथवा अयतना से कल्प प्रतिसेवना करता १.विष्ण मनि ने लक्षयोजन की विकुर्वणा की, वह उत्सेध पैर रखना संभव नहीं था। विष्णु कुमार की कथा के अंगुल से की या प्रमाण अंगुल से, यह एक प्रश्न है। विस्तार हेतु देखें राजेन्द्र अभि. भा.५ पृ.८८६,८८७। उत्तराध्ययन की टीका में उल्लेख मिलता है कि उन्होंने 2. जीभा 601-15, निभा 484-93 / उत्सेध अंगल प्रमाण से विकुर्वणा की। उन्होंने जम्बूद्वीप 3. निभा 363; के मध्य लवण समुद्र की खातिका में पूर्व से पश्चिम तक रागद्दोसाणुगता तु, दप्पिया कप्पिया तु तदभावा। अपने पैरों को रखा। बिना उत्सेध अंगुल के इस रूप में आराधतो तु कप्पे, विराधतो होति दप्पेणं / /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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