________________ जीतकल्प सभाष्य है तो वह प्रायश्चित्तभाक् होता है। दर्प प्रतिसेवना प्रमादी के तथा कल्प प्रतिसेवना अप्रमादी के होती है। मिश्र प्रतिसेवना निशीथभाष्य में मिश्र प्रतिसेवना का भी उल्लेख मिलता है। ज्ञान आदि का प्रशस्त आलम्बन लेकर जो सावध आचरण करता है किन्तु बाद में उसका पश्चात्ताप नहीं करता, वह मिश्र प्रतिसेवना है। इसमें सालम्बन पद शुद्ध तथा अननुताप पद अशुद्ध है। इसी प्रकार पश्चात्ताप युक्त प्रमाद प्रतिसेवना भी मिश्र प्रतिसेवना कहलाती है। इसमें पश्चात्ताप पद शुद्ध तथा प्रमाद पद अशुद्ध है। इसके दश भेद हैं - 1. दर्प-निष्कारण की जाने वाली प्रतिसेवना। 2. प्रमाद-प्रमाद से होने वाली प्रतिसेवना। 3. अनाभोग-विस्मृतिवश या अजानकारी में होने वाली प्रतिसेवना। 4. आतुर-ग्लान अवस्था में अथवा क्षुधा आदि से आतुर होने पर की जाने वाली प्रतिसेवना। 5. आपत्ति-द्रव्य, क्षेत्र आदि आपदा की स्थिति में शुद्ध द्रव्य न मिलने पर की जाने वाली प्रतिसेवना। 6. तिंतिण-पदार्थ की अप्राप्ति होने पर तिनतिनाहट करके की जाने वाली प्रतिसेवना। 7. सहसाकरण-सहसा अयतना से होने वाली प्रतिसेवना। 8. भय-राजा अथवा सिंह आदि के भय से की जाने वाली प्रतिसेवना। 9. प्रद्वेष-कषाय के वशीभूत होकर की जाने वाली प्रतिसेवना। 10. विमर्श-शिष्यों की परीक्षा के निमित्त की जाने वाली प्रतिसेवना। आचार्य महाप्रज्ञ के अनुसार इन दश प्रतिसेवनाओं में अनाभोग और सहसाकरण-ये दो भेद कल्पिका प्रतिसेवना के वाचक होने चाहिए क्योंकि अनाभोग में प्रमाद नहीं अपितु उपयोगशून्यता की स्थिति होती है तथा सहसाकरण में उपयुक्तता होने पर भी शारीरिक स्थिति नियंत्रित न होने से या दैहिक चंचलता की विवशता के कारण हिंसा आदि का समाचरण होता है। स्थानांग और भगवती के इन भेदों को देखकर यह कल्पना की जा सकती है कि दर्प और कल्प प्रतिसेवना के भेदों की कल्पना उत्तरवर्ती आचार्यों १.व्यभा 171 / 2. निभा 91 / ३.निभा 475 चू पृ. 160; सालंबो सावज्जं, णिसेवते णाणुतप्पते पच्छा। जं वा पमादसहिओ, एसा मीसा तु पडिसेवा।। 4. निभा 477-80 / ५.स्था 10/69, भ 25/551, इन दोनों ग्रंथों में दर्प, प्रमाद आदि दस प्रकार प्रतिसेवना के भेद रूप में उल्लिखित हैं। वहां मिश्र प्रतिसेवना का उल्लेख नहीं है। स्थानांग में 'तिंतिण' के स्थान पर 'शंकित' शब्द का प्रयोग है तथा भगवती में 'तितिण' के स्थान पर 'संकिण्ण' शब्द का प्रयोग मिलता है। ६.स्था 10/69 का टिप्पण पृ. 976, 977 /