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________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 73 ने की है। आगम-साहित्य में प्रतिसेवना के दश भेद मिलते हैं। इनको निशीथ भाष्यकार ने मिश्र प्रतिसेवना के अन्तर्गत रखा, वह भी साधार है क्योंकि ये दसों प्रतिसेवनाएं परिस्थिति जन्य हैं। यदि इनका सेवन करके अनुताप होता है तो ये मिश्र प्रतिसेवना के अन्तर्गत आ सकती हैं। पंचकल्पभाष्य में दस प्रकार के कल्पों का वर्णन है-१. कल्प 2. प्रकल्प 3. विकल्प 4. संकल्प 5. उपकल्प 6. अनुकल्प 7. उत्कल्प 8. अकल्प 9. दुष्कल्प 10. सुकल्प। इनमें विकल्प, उत्कल्प, अकल्प और दुष्कल्प का प्रतिसेवना से सम्बन्ध है। संकल्प प्रशस्त और अप्रशस्त दोनों प्रकार का होता है अतः हेय संकल्प प्रतिसेवना के अन्तर्गत आता है।' प्रतिसेवना और कर्मबन्ध प्रतिसेवना होने पर भी कर्मबन्ध हो, यह आवश्यक नहीं है। कारण उपस्थित होने पर यतनापूर्वक की जाने वाली प्रतिसेवना कर्मक्षय करने वाली होती है, जैसे संघीय प्रयोजन प्रस्तुत होने पर की जाने वाली प्रतिसेवना कर्मक्षय करने वाली तथा दर्प से अयतना पूर्वक की जाने वाली प्रतिसेवना कर्मबंध का हेतु बनती है। भाष्यकार के अनुसार कर्मोदय से प्रतिसेवना होती है और प्रतिसेवना से कर्मबन्ध होता है अतः प्रतिसेवना और कर्म में बीज और अंकुर की भांति परस्पर हेतुहेतुमद् भाव का सम्बन्ध है। ज्ञान और ज्ञानी की भांति प्रतिसेवक और प्रतिसेवना में एकत्व है। प्रतिसेवक की शठता और अशठता के आधार पर कर्मबंध होता है। अकल्प्य का कल्प्य बुद्धि से सेवन करता हुआ साधु दोष का भागी नहीं होता क्योंकि वहां उसका भाव शठ नहीं है। जिसे गुण-दोष का विवेक नहीं है, वह दोष को नहीं जानता हुआ अशठ भाव से प्रतिसेवना करता है अत: वह निर्दोष होता है, उसके कर्मबन्ध नहीं होता। अध्यवसाय की मलिनता के कारण प्रतिसेवना करता है तो उसे दोष लगता है और कर्मबन्ध होता है। गूढ़-पदों में प्रतिसेवना का कथन . आज्ञा व्यवहार में जंघाबल से हीन आचार्य गूढ-पदों में अपने अतिचारों को धारणा शक्ति से समर्थ परिणामक शिष्य के साथ गीतार्थ आचार्य के पास भेजते हैं। उस समय उनकी भाषा होती है प्रथम कार्य के प्रथम पद से प्रथम षट्क के प्रथम स्थान में प्रतिसेवना हुई है। इसका तात्पर्य है प्रथमकार्य-दर्पप्रतिसेवना में प्रथमपद-निष्कारण दर्प से प्रथम षट्क का प्रथम-प्राणातिपात विषयक प्रतिसेवना हुई है। इससे 1. विस्तार हेतु देखें पंकभा 1513-1667 / २.व्यभा 225 / 13. व्यभा 226; पडिसेवणा उ कम्मोदएण कम्ममवि तं निमित्तागं। अण्णोण्णहेउसिद्धी, तेसि बीयंकुराणं च।। 4. व्यभा 40 / 5. व्यभा 174, 175 / ६.जीभा 618 /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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