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________________ 74 जीतकल्प सभाष्य दूरस्थ गीतार्थ आचार्य जान जाते थे कि दर्प प्रतिसेवना से प्राणातिपात सम्बन्धी प्रतिसेवना हुई है। इसी प्रकार द्वितीय कार्य कहने पर कल्पिका प्रतिसेवना से सम्बन्धित प्रतिसेवना हुई है। प्रथम पद कहने से दर्शन के निमित्त तथा प्रथम षट्क अर्थात् प्राणातिपात विषयक अतिचार हुआ है। अपराध स्थान के तीन षट्क हैंप्रथम षट्क (प्राणातिपात आदि), द्वितीय षट्क (पृथ्वीकाय-विराधना आदि), तृतीय षट्क' (अकल्प्य ग्रहण आदि) दूरस्थ आलोचनाचार्य आलोचना सुनकर गूढ-पदों में प्रायश्चित्त देते थे। प्रथम कार्य अर्थात् दर्प प्रतिसेवना के दश भेदों से सम्बन्धित आलोचना सुनकर आचार्य कहते थे-'नक्षत्र (मास) जितने प्रायश्चित्त से शुद्धि हो सके, उतनी व्रत की पीड़ा हुई है अतः तुम शुक्ल (लघु) मासिक तप करो,' जीतकल्पभाष्य और व्यवहारभाष्य में इसका विस्तार से वर्णन प्राप्त है। आलोचना का स्वरूप एवं उसका महत्त्व प्रायश्चित्त का प्रथम भेद है-आलोचना। आ उपसर्ग के साथ लोचूं-दर्शने धातु से आलोचना शब्द निष्पन्न हुआ है। आलोचना का अर्थ है-मर्यादापूर्वक शुद्ध हृदय से गुरु के समक्ष अपने दोषों को प्रकट करना।' निशीथ चूर्णिकार के अनुसार जैसे शिष्य स्वयं अपने दोषों को जानता है, उसी रूप में गुरु के समक्ष प्रकट करना आलोचना है। आचार्य मलयगिरि के अनुसार अवश्यकरणीय कार्य करने के पहले तथा कार्य-समाप्ति के पश्चात् गुरु के समक्ष वाणी के द्वारा स्वयं के दोषों को प्रकट करना आलोचना है। कुंदकुंद निश्चय नय के आचार्य हैं अतः उनका मंतव्य है कि अपनी आत्मा को समभाव में स्थित करके अपने आत्म-परिणामों को देखना आलोचना है। मूलाराधना की टीका के अनुसार अपने अपराधों का गोपन न करने का संकल्प करना आलोचना है। ओघनियुक्ति में आलोचना, विकटना, शोधि, सद्भावदर्शन, निंदा, गर्दा, विकुट्टन, शल्योद्धरण, प्रकाशन, आख्यान और प्रादुष्करण-इन सबको एकार्थक माना है। जीतकल्पभाष्य में व्यवहार, आलोचना, १.जीभा 632 / पश्चादपि च गुरोः पुरतो वचसा प्रकटीकरणं सा चालोचना। २.जीभा 630 / 7. निसा 109; 3. जीभा 639 / जो पस्सदि अप्पाणं, समभावे संठवित्तु परिणामं / 4. जीभा 718 / आलोयणमिदि जाणह, परमजिणंदस्स उवएस।। ५.निचू 4 पृ. 271 ; आलोयणा णाम जहा अप्पणो जाणति, 8. मूला 621 टी पृ. 459 / तहा परस्स पागडं करेति। 9. ओनि 791; 6. व्यभापीटी प. 21; आलोचना नाम अवश्यकरणीयस्य आलोयणा वियडणा, सोही सब्भावदायणा चेव। कार्यस्य पूर्व वा कार्यसमाप्तेरूचं वा यदि वा पूर्वमपि निंदण गरिह विउट्टण, सल्लुद्धरणं ति एगट्ठा / /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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