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________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श शोधि और प्रायश्चित्त को एकार्थक माना है। उत्तराध्ययन शान्त्याचार्य टीका में आलोचन, विकटन, प्रकाशन, आख्यान और प्रादुष्करण-इन शब्दों को एकार्थक माना है।' तत्त्वार्थस्वोपज्ञभाष्य में विकटन के स्थान पर प्रकटन शब्द का प्रयोग है। भाष्यानुसारिणी में आचार्य सिद्धसेन ने इन शब्दों को एकार्थक मानते हुए भी आलोचना की क्रमिक अवस्था के रूप में इनकी व्याख्या की है। मर्यादापूर्वक गुरु को निवेदन करना आलोचन, गुरु के समक्ष द्रव्य, क्षेत्र आदि के भेद से अतिचारों को कहना विवरण, गुरु के चित्त में सम्यक् रूप से अतिचारों का समारोपण करना प्रकाशन, मृदुचित्त से अपने दोष बताना आख्यान तथा उसके पश्चात् निंदा और गर्दा के द्वारा अपने अतिचारों को प्रकट करना प्रादुष्करण है। __ अतिचार, स्खलना एवं अपराध होने के अनेक स्थान हो सकते हैं, जैसे-सहसा, अज्ञानवश, भय, परप्रेरणा, आपदा, रोग-आतंक, मूढ़ता और राग-द्वेष आदि। इन स्थानों से अतिचार होने पर आलोचना के द्वारा साधु अतीत के दोषों की स्वीकृति करके भविष्य में पुनः उस गलती को न दोहराने का संकल्प ग्रहण करता है। आचारांग में स्पष्ट उल्लेख मिलता है कि जो साधु अपनी गलती को स्वीकार नहीं करता, वह उसकी दोहरी मूढ़ता है। भाष्यकार के अनुसार साधु को मुहूर्त भर भी अतिचार शल्य को भीतर नहीं रखना चाहिए, अपराध होते ही तत्काल आलोचना करनी चाहिए। तत्काल निवेदन न करने से पुनः-पुनः अपराध करने का साहस बढ़ता जाता है। विनय पिटक में भी प्रकारान्तर से इसी तथ्य का समर्थन है। अपराध को तत्काल सूचित करने तथा कई दिनों तक छिपाकर प्रकट करने–इन दोनों स्थितियों में प्रायश्चित्त-दान में अंतर आ जाता है। आचार्य भिक्षु ने अपने साहित्य में इस तथ्य की मनोवैज्ञानिक प्रस्तुति दी है। यदि कोई साधु अधिक समय का अंतराल बिताकर आचार्य को दूसरे साधु के दोष बताता है तो वह स्वयं प्रायश्चित्त का भागी बन जाता है। .. आगमों में अनेक ऐसे कथानक हैं, जहां धर्माचार्य, प्रवर्तनी आदि के द्वारा अकृत्य स्थान की आलोचना-प्रतिक्रमण करने की प्रेरणा दी गई है। जैसे सुकुमालिका द्रौपदी चुलनीपिता आदि। आनंद के १.जीभा 1844 / प्रथमं मृदुना चेतसा / प्रादुष्करणं निन्दा-गर्दाद्वारेण, इति 2. उशांटी प६०८ : आलोचनं विकटनं प्रकाशनमाख्यानं एवमनर्थान्तरम्-एकार्थत्वं परमार्थत इति। प्रादुष्करणमित्यनर्थान्तरम्। 6. जीभा 134, व्यभा 4056 / 3. तस्वोभा 9/22 ; आलोचनं प्रकटनं प्रकाशनमाख्यानं 7. व्यभा 4300 / प्रादुष्करणमित्यनान्तरम्।। 8. निभा 6309, व्यभा 229; 4. भाष्यानुसारिणी (9/22) में प्रकटन के स्थान पर विवरण तं न खमं खु पमातो, मुहत्तमवि अच्छितुं ससल्लेणं। शब्द का प्रयोग है। ___ आयरियपादमूले, गंतूण समुद्धरे सल्लं / / ५.तभा 9/22 टी पृ. 250; आलोचनं मर्यादनं मर्यादया 9. ज्ञा 1/16/115 / गुरोर्निवेदनम्। पिण्डिताख्यानस्य विवरणं द्रव्यादिभेदेन। 10. उपा 3/45,46 / प्रकाशनं गुरोश्चेतसि सम्यगतीचारसमारोपणम्। आख्यानं
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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