________________ 76 जीतकल्प सभाष्य अवधिज्ञान की विशालता पर शंका करने पर भगवान् महावीर ने गौतम गणधर को उस स्थान की आलोचना करके प्रायश्चित्त तप स्वीकार करने को कहा। शुद्ध हृदय से आलोचना करने वाला भार उतारे हुए भारवाहक की भांति स्वयं को हल्का अनुभव करता है। नियुक्तिकार के अनुसार लज्जा, गौरव और बहुश्रुतता के अभिमान के कारण जो मुनि गुरु के समक्ष अपने दोषों की आलोचना नहीं करता, वह आराधक नहीं हो सकता। उसका इहलोक और परलोक-दोनों बिगड़ जाते हैं। आलोचना करने पर भी यदि गुरु द्वारा प्रदत्त प्रायश्चित्त का पालन नहीं किया जाता तो वह बिना साफ किए धान्य की भांति महाफलदायक नहीं होता। जो साधु अपने अतिचार रूप शल्य का विशोधन नहीं करता, वह दुःख और परिक्लेश को प्राप्त करता है, इस बात को व्यवहारभाष्यकार में एक दृष्टान्त से समझाया है। एक शिकारी नंगे पैरों से जंगल में गया। उसके दोनों पैर कांटों से विद्ध हो गए। उसने न स्वयं कांटों को निकाला और न ही अपनी भार्या से निकलवाया। एक बार वह वन में गया। एक उन्मत्त हाथी ने उसका पीछा किया। शिकारी दौडने लगा लेकिन कांटों के कारण वह दौड़ नहीं सका। उसकी गति मंद हो गई। भय से मूछित होकर वह वहीं गिर गया। हाथी ने उसे रौंदकर मार डाला। दूसरा शिकारी भी जंगल में गया। उसके पैर में कांटे चुभे लेकिन उसने तत्काल उन कांटों को निकाला और शेष कांटों को अपनी पत्नी से निकलवाया। कांटों से विद्ध स्थानों को कर्णमैल और दंतमैल से भरा, जिससे वह पुनः स्वस्थ हो गया। हाथी ने उसे भी देखा लेकिन वह भागकर सुरक्षित घर लौट आया। भगवती आराधना में भी इसी तथ्य का प्रतिपादन है। बत्तीस योग-संग्रह में प्रथम योग आलोचना है', आवश्यकनियुक्ति में दी गई अट्टन मल्ल और मात्स्यिक मल्ल की कथा इसी तथ्य को प्रकट करने वाली है। महानिशीथ के प्रथम अध्याय शल्योद्धरण में विस्तार से प्रायश्चित्त और आलोचना का वर्णन किया गया है। आलोचना के प्रकार आलोचना तीन प्रकार की होती है 1. उपा 1/77-81 / 2. ओनि 806; उद्धरियसव्वसल्लो, आलोइय-निंदिओ गुरुसगासे। होइ अतिरेगलहुओ, ओहरियभरो व्व भारवहो।। 3. उनि 211; लज्जाए गारवेण य, बहुस्सुयमएण वावि दुच्चरियं। जे न कहंति गुरूणं, न हु ते आराहगा होति / / 4. तवा 9/22 ; कृतालोचनस्यापि गुरुदत्तप्रायश्चित्तम कुर्वतोऽपरिकर्मसस्यवद् महाफलं न स्यात्। 5. व्यभा 662, 663 / 6. भआ 538,539 / ७.सम 32/1 / 8. आवनि 869, हाटी प. 117 /