________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श ওও 1. विहार आलोचना–बल और वीर्य होने पर भी तप, उपधान आदि में उद्यम न करने की आलोचना तथा दैनिकचर्या की आलोचना। 2. उपसम्पदा आलोचना -उपसम्पदा के लिए उपस्थित मुनि के द्वारा की जाने वाली आलोचना / उपसम्पदा आलोचना प्रशस्त-अप्रशस्त दिन में अथवा रात में कभी भी की जा सकती है। 3. अपराध आलोचना-अतिचार या अतिक्रमण की विशुद्धि हेतु की जाने वाली आलोचना। अपराध आलोचना में प्रशस्त द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और दिशा आदि का ध्यान रखा जाता है। इन सबका वर्णन भूमिका में आगे किया जाएगा। तीनों प्रकार की उपसम्पदाएं दो-दो प्रकार की होती है -ओघ और विभाग। ओघ का अर्थ है- संक्षिप्त रूप में की जाने वाली आलोचना तथा विभाग का तात्पर्य है-विस्तारपूर्वक की जाने वाली आलोचना। उपसम्पदा का जघन्य समय छहमास तथा मध्यम बारह वर्ष तथा उत्कृष्ट यावज्जीवन होता है। ओघ विहार आलोचना कोई मुनि एक दिन या पन्द्रह दिनों के भीतर कहीं से आया है, वह यदि निरतिचार साधु है तो ईर्यापथिक प्रतिक्रमण करके भोजन-वेला में ओघ आलोचना करके भोजन-मंडलि में प्रवेश कर सकता है। यह ओघ आलोचना है, जो एक दिवसीय होती है तथा दिन में ही की जाती है। इसी प्रकार मूलगुण और उत्तरगुण में अल्प विराधना होने पर तथा पार्श्वस्थ साधु को देने-लेने में अल्प विराधना होने पर ओघ आलोचना होती है। भगवती आराधना के अनुसार अपरिमित तथा बहुत अपराध करने पर, सम्यक्त्व आदि का घात होने पर ओघ आलोचना होती है। यह मूल प्रायश्चित्त प्राप्त साधु के होती है।' विभाग विहार आलोचना -पन्द्रह दिन से अधिक समय लगने पर भोजन-वेला के अतिरिक्त अन्य समय में समिति आदि की विशुद्धि के लिए विभाग आलोचना की जाती है। दूसरे गण से संविग्न साधुओं में से कोई साधु अन्य गण में आता है तो उसे अवश्य विभागत: आलोचना दी जाती है। जहां नियमतः पांच प्रकार की अथवा एक प्रकार की उपसम्पदा स्वीकार की जाती है, वहां निरतिचार होने पर भी विभागत: आलोचना देनी चाहिए। 1. व्यभा 246; दिव-रातो उवसंपय। २.व्यभा 246 ; अवराधे दिवसतो पसत्थम्मि। ३.भआ५३५ ; दिगम्बर साहित्य में 'विभाग' के स्थान पर .'पदविभाग' शब्द का प्रयोग हुआ है लेकिन वहां दोनों के स्वरूप में काफी अंतर है। ४.निभा 5452 / 5. निभा 6315 / ६.जीभा 773, निभा 6316 / 7. भआ 535,536 विटी पृ. 392 / ८.जीभा 774 / 9. जीभा 778 / 10. जीभा 780 /