________________ 78 जीतकल्प सभाष्य एक गच्छ के समनोज्ञ, सांभोजिक और गीतार्थ साधु यदि एक दिन, पांच दिन, पक्ष या चातुर्मास में जहां भी आपस में मिलते हैं, वहां विभागतः विहार आलोचना देनी चाहिए। विभाग आलोचना से पूर्व मंडलि में आहार नहीं किया जाता। अपवाद स्वरूप अग्नि-संभ्रम आदि कारण हो या सार्थ के साथ विहार हो, सार्थ जल्दी प्रस्थान करने वाला हो अथवा पात्र कम हों तो आगंतुक मुनि ओघ आलोचना करके एक साथ मंडलि में आहार करके तत्पश्चात् विभाग आलोचना कर सकता है। अपराध बहुलता के कारण यह एक या अनेक दैवसिकी हो सकती है। विहार विभाग आलोचना करने के सम्बन्ध में आचार्यों में मतभेद है। कुछ आचार्य मानते हैं कि जब शिष्य और प्रतीच्छक भिक्षार्थ, विचारभूमि या अन्य कार्य से बाहर चले जाएं तो अकेले आचार्य के पास स्पर्धकपति (अग्रणी) आलोचना करता है लेकिन कुछ आचार्यों की यह मान्यता है कि स्पर्धकस्वामी को अपने साथ आए हुए साधुओं के समक्ष आलोचना करनी चाहिए, जिससे कुछ विस्मृत हुआ हो तो वे स्मृति दिला सकें। भगवती आराधना के अनुसार दीक्षा ली, तब से हुई प्रतिसेवना के क्रम से आलोचना करना पदविभागी आलोचना है। विहार आलोचना का क्रम ___ जिस गांव में उपाश्रय छोटा हो, वहां साधु भिन्न-भिन्न उपाश्रय में रहते हैं। उस समय अलगअलग वसति में रहते हुए भी प्राभातिक और वैकालिक प्रतिक्रमण और आलोचना गुरु के पास की जाती है। यदि आचार्य का उपाश्रय दूर हो तो उद्घाट पौरुषी में आचार्य के पास जाकर आलोचना की जाती है। यदि गीतार्थ या गीतार्थ सहायक मुनि साथ न हो, प्रत्येक मुनि अलग-अलग आचार्य के पास जाकर आलोचना करते हैं तो आने-जाने में पौरुषी भंग होती है, उस स्थिति में गुरु स्वयं आलोचना देने उनके पास आते हैं। आचार्य यदि स्थविर हों, जंघाबल क्षीण हो तो अकृतश्रुत मुनि मध्याह्न में जाकर गुरु के पास आलोचना करते हैं। यदि उपाश्रय अत्यधिक दूर है तो आचार्य समनोज्ञ, धृतिमान् मध्यमवय से ऊपर वय वाले वृषभों को वहां भेजते हैं। यदि आचार्य का कोई नित्य सहायक नहीं है तो एक स्थान पर रात्रि-प्रवास करके आचार्य उनको अर्थ पौरुषी देकर मध्याह्न में दूसरे स्पर्धक मुनियों के पास जाकर आहार करते हैं। उनको प्रायश्चित्त देकर तीसरे स्पर्धक के पास आलोचना आदि देकर वहीं रह जाते हैं। इस प्रकार आचार्य एक दिन में तीन स्थानों पर स्पर्धकों की विशोधि करते हैं। किसी कारणवश आचार्य के आने की स्थिति न हो तो तीन दिन में आलोचना ली जाती है। यदि अगीतार्थ मुनि तीन पृथक्-पृथक् गांवों में हैं और आचार्य १.जीभा 781,782, व्यभा 234 / २.निभा 6315 3. व्यभा 239 / ४.भआ 537 /