________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 79 आलोचना आदि की दृष्टि से उनकी संभाल नहीं करते हैं तो उन्हें चतुर्लघु प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। यदि साधु भी आचार्य के न आने पर उनकी गवेषणा नहीं करते तो उन्हें लघुमास प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। तीन स्थानों पर मुनि रुके हुए हैं और आचार्य स्थविर हैं तो वे एक दिन में एक-एक स्पर्धक मुनियों के पास रहकर आलोचना देते हैं और यदि वे सर्वथा अक्षम हैं तो दूसरे स्पर्धकद्वय आचार्य के पास आकर आलोचना करते हैं। स्पर्धक मुनियों में जो मेधावी होता है, वह सभी साधुओं के अतिचारों/अपराधों को एकत्रित करके आचार्य के पास आलोचना ग्रहण करता है। यदि आचार्य अत्यधिक दूर हैं तो पांचवें दिन अथवा पाक्षिक अथवा मासिक अथवा डेढ़ मास से आचार्य के समक्ष आलोचना ग्रहण करते हैं। यदि ऐसा भी संभव न हो तो चातुर्मासिक, वह भी संभव न हो तो सांवत्सरिक आलोचना की जाए। किसी कारण विशेष से ऐसा संभव न हो तो बारह वर्ष बीतने पर दूर से आकर भी विहार आलोचना अवश्य करनी चाहिए। ___ आचार्य हरिभद्र ने इस सारे प्रसंग का उपसंहार करते हुए पंचाशक प्रकरण में कहा है कि सुबह और शाम आलोचना करने पर भी पाक्षिकपर्व, चातुर्मासिक पर्व पर विहार आलोचना अवश्य करनी चाहिए। इसे दृष्टान्त से समझाते हुए वे कहते हैं कि जिस प्रकार जल का घड़ा प्रतिदिन साफ करने पर भी उसमें थोड़ी गंदगी रह जाती है, प्रतिदिन घर की सफाई करने पर भी पर्व दिवसों में घर की विशेष सफाई की जाती है, वैसे ही साधक को भी प्रतिदिन आलोचना करने पर भी पाक्षिक आदि पर्वो में आलोचना अवश्य करनी चाहिए। उपसम्पद्यमान शिष्य की परीक्षा एवं आलोचना अपने ज्ञान, दर्शन और चारित्र की वृद्धि के लिए एक गण से दूसरे गण में सम्मिलित होना उपसम्पदा है। भाष्यकार के अनुसार जो ज्ञान और चारित्र में नियुक्त है, चरणश्रेणी में स्थित है, जिसने पार्श्वस्थ आदि पांच स्थानों का त्याग कर दिया है तथा जो शिक्षापना-ग्रहणशिक्षा और आसेवन शिक्षा देने में कुशल है, ऐसे आचार्यों के पास उपसम्पदा ग्रहण करनी चाहिए।' उपसम्पद्यमान शिष्य दो प्रकार के होते हैं-समनोज्ञ और अमनोज्ञ। समनोज्ञ ज्ञान और दर्शन के लिए उपसम्पदा ग्रहण करता है। उसकी उपसम्पदा आलोचना विहार आलोचना की भांति होती है। अमनोज्ञ ज्ञान, दर्शन और चारित्र-इन तीनों कारणों से उपसम्पदा ग्रहण करता है। १.व्यभा 2729-44 / २.व्यमा 234 / ३.पंचा 15/11 // 4. व्यभा 1933; नाण-चरणे निउत्ता, जा पुव्व परूविया चरणसेढी। सुहसीलठाणविजढे, निच्चं सिक्खावणा कुसला।। ५.व्यभा 247 /