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________________ जीतकल्प सभाष्य अन्य गण से आगत उपसम्पद्यमान मुनि का आगमन और निर्गमन शुद्ध है या अशुद्ध, इसकी आचार्य पूरी परीक्षा करते हैं। यदि आचार्य उपसम्पदा के लिए इच्छुक मुनि से उसके आगमन का कारण नहीं पूछते हैं तो वे प्रायश्चित्त के भागी होते हैं।' ____ यदि उपसम्पद्यमान शिष्य कलहकारी, विकृति-प्रतिबद्ध, योगोद्वहन में भयभीत, प्रत्यनीक, स्तब्ध, क्रूर, अलस, अनुबद्धवैर वाला तथा स्वच्छंदमति है तो आचार्य उसको उपसम्पदा देने का परिहार करते हैं। यदि आगत उपसम्पद्यमान भिक्षु अपने गण में आचार्य या गृहस्थ से कलह करके आया है, उसको यदि आचार्य स्वीकार करते है तो आचार्य को चतुर्लघु प्रायश्चित्त तथा संयतों से कलह करके आने वाले को स्वीकार करने पर चतर्गरु प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। कलह करके आए उपसम्पद्यमान साध को पांच दिनरात का छेद प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। विकृति-प्रतिबद्ध आदि उपसम्पद्यमान शिष्यों के निवेदन का विस्तृत वर्णन भाष्यकार ने किया है। जो उपसम्पद्यमान शिष्य साधुओं को प्रत्यनीक मानकर आया है, विकृति प्रतिबद्धता के कारण आया है अथवा अनुबद्धवैर वाला आया है तो उन सबको चतुर्गुरु प्रायश्चित्त तथा शेष कारणों से आने वाले को चतुर्लघु प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। इनको उपसम्पदा देने वाले आचार्य को भी यही प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। इसी प्रकार आचार्य को अकेला छोड़कर आने वाले, उनको अपरिणत शिष्य के पास छोड़कर आने वाले, आचार्य को अल्पाधार-(सूत्र और अर्थ की निपुणता से विकल) छोड़कर आने वाले, गुरु को स्थविर–वृद्ध अवस्था में छोड़कर आने वाले अथवा संघ में ग्लान, बहुत रोगों से आक्रान्त और मंदधर्मा शिष्यों को आचार्य के पास छोड़कर आने वाले तथा गुरु से कलह करके आने वाले को उपसम्पदा देने वाले आचार्य और उस उपसम्पद्यमान शिष्य को चतुर्गुरु प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। . ___अवगुणों से युक्त उपसम्पद्यमान मुनियों का आचार्य उपाय-कौशल से निवारण करते हैं। यदि आगत मुनि ज्ञानार्थी होकर आया है तो आचार्य उसको कहते हैं कि मेरा ज्ञान अब शंकित हो गया है। शंकित ज्ञान किसी दूसरों को दिया नहीं जा सकता अतः तुम निःशंक श्रुत देने वाले आचार्य की गवेषणा करो। स्वच्छंदमति वाले शिष्य के निवारण हेतु आचार्य कहते हैं कि हमारे गण की यह सामाचारी है कि स्थण्डिलभूमि में भी मुनि एकाकी नहीं जा सकता। अनुबद्धवैर के निवारण हेतु आचार्य उसको कहते हैं कि हमारे गण में मुनि भोजनमण्डली, सूत्रमण्डली, अर्थमण्डली और स्वाध्यायमण्डली में ही नियुक्त होते 1. विस्तार हेतु देखें व्यभा 298-301 / 2. व्यभा 249 / 3. द्र.व्यभा 251-55 / ४.व्यभा 256 / ५.व्यभा 257-62 /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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