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________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श हैं, तुम ऐसा नहीं कर सकते अतः अन्यत्र किसी गण में चले जाओ। अलस उपसम्पद्यमान को कहते हैं कि हमारे गण में बाल-वृद्ध आदि अनेक मुनि हैं, वे भिक्षाचर्या हेतु नहीं जा सकते। यदि तुम भिक्षाचर्या कर सको तो रहो, अन्यथा यहां रहना ठीक नहीं है। प्रायश्चित्तभीरु को कहते हैं कि यहां छोटी सी स्खलना पर तत्काल प्रायश्चित्त दिया जाता है, कालक्षेप नहीं किया जाता। विकृति-प्रतिबद्ध को कहते हैं कि हमारे गण में योगवाही अथवा अयोगवाही सभी विकृति का वर्जन करते हैं अथवा बाल, वृद्ध, अतिथि, ग्लान आदि को उत्कृष्ट द्रव्य दिया जाता है। तुम्हारा शरीर दुर्बल है अतः विकृति के बिना तुम्हारा निर्वाह कठिन है। स्तब्ध को कहते हैं कि हमारे गण में यह सामाचारी हैं कि गुरु जब चंक्रमण करें तो शिष्य को अभ्युत्थान करना होगा अन्यथा प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। ___ जिस उपसम्पद्यमान शिष्य का कलह आदि के कारण निर्गमन अशुद्ध है, वह यदि आचार्य के समक्ष यह कहे कि अब मैं इन गलतियों को नहीं दोहराऊंगा तो आचार्य उसे उपसम्पदा के लिए स्वीकार कर सकते हैं लेकिन इनमें भी जो कलह करके, अनुबद्धरोष वाला होकर आया है अथवा आचार्य को एकाकी छोड़कर आया है उसे आचार्य उपसम्पदा हेतु स्वीकार नहीं करते। जिस शिष्य का अपने गण से निर्गमन शुद्ध हो तो आचार्य उसकी तीन दिन तक परीक्षा करते हैं तथा शिष्य भी आचार्य की परीक्षा करता है। आचार्य उपसम्पद्यमान शिष्य की निम्न विषयों में परीक्षा करते हैं.–१. आवश्यक 2. प्रतिलेखन 3. स्वाध्याय 4. भोजन 5. भाषा 6. बहिर्भूमिगमन 7. ग्लान और 8. भिक्षाग्रहण। इसके अतिरिक्त गुरु द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से परीक्षा करके उसे स्नुषा दृष्टान्त से यह समझाते हैं कि तुम्हारा अपना गच्छ पीहर के समान तथा हमारा गण तुम्हारे लिए श्वसुरकुल के समान है। पितृगृह में वधू का प्रमाद सहन किया जा सकता है लेकिन श्वसुरगृह में सहन करना कठिन होता . है। यहां तुम्हारा अल्प प्रमाद भी सहन नहीं होगा।' .' यदि उपसम्पद्यमान का गण निर्गमन शुद्ध है लेकिन रास्ते में गोकुल आदि में प्रतिबद्धता रहने के कारण आगमन अशुद्ध है तो उसे प्रायश्चित्त देकर उपसम्पदा दी जाती है। तीन दिन परीक्षा करने के बाद जिसका आगमन और निर्गमन दोनों शुद्ध प्रतीत होता है, उसको उपसम्पदा न देने पर आचार्य को चतुर्लघु प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। मुनि जिस लक्ष्य से उपसम्पदा ग्रहण करता है, वह लक्ष्य पूरा नहीं करता है तो उसे .१.व्यभा 277-79 टी प. 29, 30 / आवस्सग-पडिलेहण-सज्झाए भुंजणे य भासाए। २.व्यभा 265, 266 ; वीयारे गेलण्णे, भिक्खग्गहणे पडिच्छंति।। सुद्ध पडिच्छिऊणं, अपडिच्छणे लहग तिण्णि दिवसाणि। 3. गुरु के द्वारा की जाने वाली मनोवैज्ञानिक परीक्षा-विधि के सीसे आयरिए वा, पारिच्छा तत्थिमा होति।। विस्तार हेतु देखें व्यभा 267-72 / 4. बृभा 1256-61 /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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