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________________ 82 जीतकल्प सभाष्य लघुमास प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। यदि प्रमादी शिष्य की आचार्य सारणा नहीं करते तो आचार्य को लघुमास प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। यदि दो-तीन बार कहने पर भी शिष्य जागरूक नहीं होता तो उस उपसम्पन्न शिष्य का आचार्य यह कहकर परित्याग कर देते हैं कि जैसे एक सड़ा हुआ ताम्बूल पत्र अन्य पत्रों को नष्ट कर देता है, वैसे ही तुम स्वयं विनष्ट होकर मेरे शिष्यों का नाश कर दोगे। यदि उपसम्पद्यमान क्षपक है और गण में पहले से ही एक क्षपक और है तो आचार्य को गण से पूछकर उसे उपसम्पदा देनी चाहिए क्योंकि दो-दो क्षपकों की वैयावृत्त्य में लगे रहने से साधुओं की सूत्र और अर्थ की हानि होती है। यदि गण अनुमति दे तो आचार्य क्षपक-तपस्वी को उपसम्पदा दे सकते हैं। बिना पूछे उपसम्पदा देने से आचार्य प्रायश्चित्त के भागी होते हैं। उपसम्पद्यमान शिष्य भी उपसम्पदा ग्रहण करने से पूर्व आचार्य और संघ की परीक्षा करता है। वह गच्छवासी साधु को आवश्यक आदि क्रिया में प्रमत्त देखता है तो आचार्य को निवेदन करता है। उसकी बात सुनकर आचार्य यदि प्रमादी साधु को सावधान करते हैं, उचित प्रायश्चित्त देते हैं तो वह वहां उपसम्पदा ग्रहण करता है, अन्यथा नहीं। यदि अपराध आलोचना हेतु शिष्य उपसम्पदा लेने आया है तो आचार्य उससे पूछते हैं कि तुमने अपने गण में ही अपराध की विशोधि क्यों नहीं की? यदि आगंतुक कलह आदि की बात कहता है तो आचार्य उसे कहते हैं कि हमारे संघ में कोई प्रतिचारक नहीं है। यह क्षेत्र ऐसा है, जहां भिक्षा मिलना दुर्लभ है तथा यहां थोड़े से अपराध का भी उग्र प्रायश्चित्त दिया जाता है। हमारे संघ में विचारभूमि के लिए भी संघाटक के साथ जाना पड़ता है, अकेला साधु कहीं नहीं जा सकता। यदि इन कसौटियों पर आगंतुक उपसम्पद्यमान खरा उतरे तो आचार्य उसे उपसम्पदा देकर अपराध आलोचना करवाते हैं।' उपसम्पद्यमान की आलोचना यदि उपसम्पद्यमान पार्श्वस्थ के पास दीक्षित हुआ हो और वह स्वयं भी पार्श्वस्थ हो तो वह उस दिन से लेकर आज तक की आलोचना करता है। यदि संविग्न से मुंडित हो तो जब से अवसन्न हुआ, तब से आलोचना प्रारम्भ करता है। साम्भोजिक और असाम्भोजिक जब से अपने गच्छ से निकले हैं, तब से लेकर आलोचना करते हैं। आचार्य उन्हें तप, छेद आदि प्रायश्चित्त देकर अपने गच्छ की सामाचारी बताते हैं।' उपसम्पद्यमान मुनि आचार्य के समक्ष सर्वप्रथम मूलगुणों से सम्बन्धित अतिचारों की तथा उसके पश्चात् उत्तरगुण सम्बन्धित अतिचारों की आलोचना करता है। 1. बृभा 1272, तेण परं निच्छुभणा, आउट्टो पुण सयं परेहिं वा। तंबोलपत्तनायं, नासेहिसि मज्झ अन्ने वि।।। 2. व्यभा 293-97 / 3. व्यभा 303,304 / 4. बृभा 1262, 1263 टी पृ. 390 / 5. निशीथ भाष्य (5459-5593) और पंचकल्पभाष्य (1950-84) में उपसम्पदा के संदर्भ में विस्तृत वर्णन प्राप्त होता है।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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