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________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श अपराध आलोचना किसके पास? व्यवहार सूत्र' में आलोचना किसके पास करनी चाहिए, इसका व्यवस्थित क्रम निर्दिष्ट है। अकृत्य स्थान का सेवन करने पर साधु को अपने गण के आचार्य या उपाध्याय के पास आलोचना करनी चाहिए। उनके अभाव में क्रमशः प्रवर्तक', स्थविर, गणावच्छेदक के पास आलोचना करनी चाहिए। इस क्रम का उल्लंघन करने पर चतुर्लघु प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। अगीतार्थ के पास आलोचना करने पर चतुर्गुरु प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। अपने गण में इन पांचों के न होने पर आगमज्ञ, बहुश्रुत, गीतार्थ, साम्भोजिक साधर्मिक के पास आलोचना करनी चाहिए। इनके अभाव में क्रमशः बहुश्रुत गीतार्थ अन्यसांभोजिक के पास आलोचना करनी चाहिए। इस सूत्र की व्याख्या करते हुए भाष्यकार कहते हैं कि बारह वर्ष तक आलोचना) की गवेषणा करने पर भी यदि उनकी प्राप्ति न हो तो पार्श्वस्थ के पास आलोचना करनी चाहिए। इनके अभाव में अगीतार्थ, सिद्धपुत्र या पश्चात्कृत को यावज्जीवन लिंग धारण करवाकर आलोचना करनी चाहिए। यदि वे यावज्जीवन लिंग धारण न करें तो इत्वरिक लिंग धारण कराकर सारूपिक' और पश्चात्कृत श्रमणोपासक के पास आलोचना करनी चाहिए। यदि ये सब सुलभ न हो तो सम्यक् भावित चैत्य में आलोचना करनी चाहिए। चैत्य में सम्यक्त्वी देवता के पास भी आलोचना का यही क्रम है। चतुर्थ गुणस्थानवर्ती होने के कारण उनमें सामायिक का आरोपण तथा लिंग-समर्पण नहीं किया जाता / चैत्य में आलोचना करने के संदर्भ में भाष्यकार ने भरुकच्छ के कोरंटक और राजगृह नगरी के ईशान कोण में स्थित गुणशिलक चैत्य का उल्लेख किया है। कोरंटक उद्यान में तीर्थंकर मुनि सुव्रतस्वामी तथा गुणशिलक चैत्य में भगवान् महावीर अनेक बार समवसृत हुए। वहां तीर्थंकर और गणधरों ने अनेक बार साधुओं को प्रायश्चित्त दिया, जिसे वहां के देवता ने सुना अतः ऐसे उद्यानों में जाकर तेले के अनुष्ठान में सम्यक्त्व भावित देवता का आह्वान करके उनके समक्ष आलोचना की जाती है। वह देवता पूर्व श्रुति के अनुसार यथार्थ प्रायश्चित्त देता है। यदि पूर्व स्थित देव का च्यवन हो गया है तो वह आलोचक से अनुज्ञा लेकर महाविदेह क्षेत्र में जाता है। वहां तीर्थंकर से पूछकर प्रायश्चित्त देता है। ___ यदि चैत्य सम्यक् देवता से भावित न हो तो ग्राम था नगर के बाहर पूर्व या उत्तर की ओर मुख करके आलोचक साधु कहे कि मैंने इतने अपराध इतनी बार किए हैं। मैंने तिल मात्र भी अपने दोषों को १.व्यसू. 1/33 / ३.जो संघ से बाहर निकलने पर भी मुनि वेश को नहीं २.जो तप, नियम और विनय रूप गुणनिधियों के प्रवर्तक, छोड़ते, वे सारूपिक कहलाते हैं। ज्ञान. दर्शन और चारित्र में सतत उपयोगवान् तथा शिष्यों 4. व्यभा 965-70 / के संग्रहण और उपग्रहण में कुशल होते हैं, वे प्रवर्तक 5. व्यभा 970, 971 / कहलाते हैं। (व्यभा 958) 6. व्यभा 975, 976 /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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