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________________ जीतकल्प सभाष्य नहीं छिपाया है। ऐसा कहकर वह अर्हत् और सिद्धों की साक्षी से निंदा, गर्दा और शोधि करे और स्वयं ही यथायोग्य प्रायश्चित्त स्वीकार कर ले। मूल सूत्रकार ने अगीतार्थ को आलोचना देने के योग्य नहीं माना है लेकिन भाष्यकार ने इस संदर्भ में अन्य आचार्यों की मान्यता का भी उल्लेख किया है कि गीतार्थ की अनुपस्थिति में अगीतार्थ के पास भी आलोचना की जा सकती है। इसमें भी अगीतार्थ के पास केवल विहार आलोचना की जा सकती है, अपराध आलोचना नहीं की जाती। आलोचना के लिए गीतार्थ की खोज क्षेत्र की दृष्टि से सात सौ योजन तथा काल की दृष्टि से बारह वर्ष तक करनी चाहिए।' अपराध आलोचना की विधि आलोचना करने की विधि का प्रकीर्णक रूप से उल्लेख अनेक स्थानों पर मिलता है। साधु जिसके पास आलोचना करे, सर्वप्रथम उसके प्रति गौरव और अहंकार से मुक्त होकर अभ्युत्थान कृतिकर्म करना चाहिए। फिर उत्कटुकासन में बैठकर बद्धाञ्जलि होकर आलोचना करनी चाहिए। आलोचक साधु यदि रुग्ण हो, अर्श आदि रोग हो अथवा बहु प्रतिसेवना के कारण आलोच्य विषय लम्बा हो तो वह आचार्य से निषद्या की अनुज्ञा लेकर औपग्रहिक पादप्रोञ्छन पर अथवा यथेच्छ आसन में बैठकर आलोचना कर सकता है। यह आचार्य के समक्ष स्वपक्ष–साधु के द्वारा की जाने वाली आलोचना की विधि है। साधु आचार्य के समक्ष एकान्त या निर्जन स्थान में आलोचना कर सकता है लेकिन साध्वी शून्यगृह, देवकुल, उद्यान, अरण्य, प्रच्छन्नस्थान, उपाश्रय का मध्यभाग-इन शंकास्पद स्थानों में आलोचना नहीं कर सकती। जहां लोग चलते-फिरते दिखाई दें, वैसे स्थान में साध्वी आलोचना कर सकती है।' साध्वी आलोचना करते समय खड़ी होकर कुछ झुकी हुई आलोचना करती है। अकेले आचार्य के समक्ष एक साध्वी के साथ जब दूसरी साध्वी आलोचना करे तो वह दिशा और विदिशा का अवलोकन नहीं करती और न ही किसी अन्य विषय पर वार्तालाप करती है। जिस समय गुरु का चित्त धर्मकथा करने में या अन्य किसी कारण से विक्षिप्त हो अथवा किसी अन्य कार्य में संलग्न हो, कथा करने में लीन हो, वैसी स्थिति में गुरु के पास आलोचना नहीं करनी चाहिए। 1. व्यभा 55 ; आलोयणा उ नियमा, गीतमगीते य केसिंचि। 5. मूला 620; 2. व्यभा 2198 / काऊण य किदियम्म, पडिलेहिय अंजलीकरणसुद्धो। 3. जीभा 367 / आलोचिज्ज सुविहिदो, गारव-माणं च मोत्तूण।। 4. मवि 100 6. व्यभा 315 / तम्हा सुत्तर-मूलं, अविकलमविविच्चुयं अणुव्विग्गो। 7. व्यभा 2370 / निम्मोहियमणिगूढं, सम्म आलोयए सव्वं / / 8 व्यभा 2373 ; ईसिं ओणा उद्धट्ठिया उ आलोयणा विपक्खम्मि। 9. बृभा 395 / -
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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