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________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 5 आहार करते समय गुरु से आलोचना करने पर आहार ठंडा होना तथा अंतराय आदि दोष लगते हैं तथा नीहार-उत्सर्ग के समय भी गुरु से आलोचना नहीं करनी चाहिए क्योंकि उस समय शारीरिक वेग धारण करने से कभी-कभी अकस्मात् मृत्यु भी हो सकती है। जिस समय गुरु का चित्त धर्मकथा आदि में क्षिप्त न हो, उपयोगयुक्त हो, उपशान्त हो, अनाकुल हो, उस समय गुरु से अनुज्ञा प्राप्त करके साधु को आलोचना करनी चाहिए। आलोचना सुनने वाले आचार्य को भी अव्याकुल और प्रसन्न चित्त से आलोचना सुननी चाहिए। एकाग्रचित्त होकर सुनने से आलोचना करने वाले का उत्साह नष्ट नहीं होता और आलोचक ऐसा नहीं सोचता कि गुरु का मेरे प्रति अनादर का भाव है। इस प्रकार विधिपूर्वक की गई आलोचना विशोधि की निमित्त बनती है। आलोचना करने का क्रम भावविशोधि हेतु साधु को आलोचना कैसे करनी चाहिए, इसको टीकाकार हरिभद्र ने मालाकार के दृष्टान्त से स्पष्ट किया है , जैसे कोई निपुण मालाकार अपने बगीचे का दोनों समय अवलोकन करता है। यदि फूल आ गए हों तो उनको ग्रहण करके विकसित, मुकुलित और अर्द्धमुकुलित के क्रम से उनका अलग-अलग विभाग करता है। उसके पश्चात् उनको धागे में पिरोकर माला बनाता है। फिर माला से अभिलषित अर्थ की प्राप्ति होने से उसका चित्त प्रसन्न हो जाता है। जो इस क्रम से अपने बगीचे की देखभाल आदि नहीं करता, उसको ईप्सित अर्थ की प्राप्ति नहीं होती। इसी प्रकार साधु भी अपनी हर क्रिया का सजगता से अवलोकन करता है। यदि कोई दोष लग जाए तो उनको चित्त में ग्रहण करके लघु और बृहद् दोषों का विभाग करता है और फिर प्रतिसेवना के क्रम से उनको ग्रथित करके गुरु के पास आलोचना करके भांवशुद्धि प्राप्त कर लेता है। इस प्रक्रिया से वह औदयिक भाव से क्षायोपशमिक भाव को प्राप्त कर लेता है। पंचकल्पभाष्य में आलोचनाकल्प के अन्तर्गत आलोचना करने के क्रम का विस्तृत विवेचन प्राप्त होता है। नियमसार में इन चारों शब्दों को आलोचना के लक्षण के रूप में स्वीकार किया है लेकिन ये चारों आलोचना करने की क्रमिक अवस्थाएं हैं - 1. ओनि 514 ; वक्खित्तपराहुत्ते, पमत्ते मा कयाइ आलोए। आहारं च करेंतो, नीहारं वा जइ करेइ / / .२.ओनि 515 अव्यक्खित्ताउत्तं, उवसंतमुवदिअंच नाऊणं। अणुन्नवेत्तु मेहावी, आलोएज्जा सुसंजए।। 3. आवनि 834, हाटी 2 पृ. 48; आलोवणमालुंचण वियडीकरणं च भावसोही य। 4. पंकभा 1927-49 / ५.निसा 108 आलोयणमालुंछण, वियडीकरणं च भावसुद्धी य। चउविहमिह परिकहियं, आलोयणलक्खणं समए।।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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