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________________ जीतकल्प सभाष्य 1. आलोचन-दोषों का निवेदन / 2. आलुंछण-समूल वृक्ष की भांति अपने दोषों को उखाड़ना। 3. अविकृतीकरण-मध्यस्थ भावना से कर्म से भिन्न आत्मा के निर्मल गुणों का चिन्तन करना। 4. भावशुद्धि-भावों की शुद्धि / आलोचना दो प्रकार की होती है-मूलगुण आलोचना और उत्तरगुण आलोचना। साधु को सर्वप्रथम मूलगुण-महाव्रत सम्बन्धी आलोचना करनी चाहिए। सर्वप्रथम पृथ्वीकाय सम्बन्धी आलोचना करनी चाहिए, जैसे–मार्ग में चलते समय स्थण्डिल से अस्थण्डिल भूमि में जाना हुआ हो, काली मिट्टी से नीली मिट्टी में तथा नीली मिट्टी से काली मिट्टी में संक्रमण करते हुए पैरों का प्रमार्जन न किया हो, सचित्त रजों से युक्त हाथ या पात्र से भिक्षा ग्रहण की हो। अप्काय में सचित्त उदक से आई या स्निग्ध हाथ से भिक्षा ली हो, जल-मार्ग को अयतनापूर्वक पार किया हो। इसी प्रकार तेजस्काय, वायुकाय आदि के बारे में हुए अतिचारों की आलोचना करनी चाहिए। दूसरे महाव्रत में हास्य, भय आदि के कारण असत्य बोला हो, तीसरे महाव्रत में अयाचित ग्रहण किया हो, चौथे महाव्रत में स्त्री का स्पर्श, पूर्वक्रीडित का स्मरण, स्त्रियों के अवयवों का अवलोकन आदि किया हो। पांचवें महाव्रत में उपकरणों में मूर्छा तथा अतिरिक्त उपधि ग्रहण की हो, छठे व्रत में आहार के लेप से युक्त पात्र आदि अथवा औषधि या सौंठ रात्रि में रखे हों अथवा रात्रि में ग्रहण किया हो तो क्रमशः गुरु के समक्ष आलोचना करनी चाहिए। इसी प्रकार उत्तरगुण में समिति-गुप्ति आदि में अयतना हुई हो अथवा बल और पराक्रम होने पर भी तप-उपधान में उद्यम न किया हो तो मुनि ऋजुता से उसकी आलोचना करे। इसके अतिरिक्त राग-द्वेष, भय, हास्य, प्रमाद, रोग, आतंक और परप्रेरणा-इनमें से किस कारण से प्रतिसेवना की, उसकी भी गुरु के समक्ष आलोचना करनी चाहिए। आचार्य हरिभद्र के अनुसार प्रकारान्तर से ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य-इनसे सम्बन्धित अतिचारों की गुरु के समक्ष क्रमशः आलोचना करनी चाहिए। मरणविभक्ति प्रकीर्णक में आलोचना करने के क्रम का विशद विवेचन प्राप्त होता है। __आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक प्रकरण में आलोचना के क्रम को दो भागों में विभक्त किया हैविकट आलोचना और आसेवना आलोचना। पहले छोटे फिर क्रमशः बड़े अतिचारों की आलोचना करना विकट आलोचना है। जिस क्रम से दोष सेवन किया हो, उसी क्रम से दोषों को प्रकट करना आसेवना 1. निसा 109-12 / 2. व्यभा 240-44 मटी प. 19, 20 / 3. मवि 113 / 4. पंचा 15/28 / 5. मवि 94-124 /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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