________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श आलोचना है। गीतार्थ साधु विकट आलोचना के क्रम से आलोचना करे क्योंकि वह आलोचना के क्रम को जानता है। अगीतार्थ साधु आसेवन के क्रम से आलोचना करे क्योंकि वह आसेवना के क्रम से दोषों को याद रख सकता है, उसे आलोचना के क्रम का ज्ञान नहीं होता। आलोचना के समय द्रव्य, क्षेत्र आदि का महत्त्व आलोचना के समय द्रव्य, क्षेत्र आदि का भी प्रभाव पड़ता है अतः प्रशस्त द्रव्यों की उपस्थिति में अपराध आलोचना की जाती है। व्यवहारभाष्य में अप्रशस्त द्रव्यों का उल्लेख मिलता है, जैसे-तिल, उड़द आदि अमनोज्ञ धान्य राशि के ढेर के पास आलोचना नहीं करनी चाहिए। पत्र रहित करीर, कंटीला बबूल, विद्युतहत वृक्ष, क्षाररस युक्त वृक्ष, रोहिणी, कुटज, नीम आदि कटुक रस वाले वृक्ष, दावाग्नि से दग्ध वृक्ष-ये अमनोज्ञ वृक्ष हैं, इनके नीचे आलोचना नहीं करनी चाहिए। इसी प्रकार लोहा, जस्ता, तांबा और सीसा आदि अमनोज्ञ धातुओं के पास आलोचना नहीं करनी चाहिए। आलोचना के लिए शालि आदि धान्य का ढेर प्रशस्त होता है। इसी प्रकार मणि, स्वर्ण, मौक्तिक आदि रत्नों की राशि आलोचना के लिए प्रशस्त द्रव्य हैं। . क्षेत्र की दृष्टि से टूटा घर, भित्ति के अवशेष वाला घर, रुद्रगृह, ऊषरभूमि, प्रपात, दग्धभूमिइन स्थानों के पास आलोचना नहीं करनी चाहिए। रौद्र देवताओं के स्थान पर भी आलोचना नहीं करनी चाहिए। आलोचक की निर्विघ्नता के लिए ऐसे स्थानों पर आचार्य आलोचना नहीं करवाते। ऐसे स्थानों पर आलोचना करने से प्रारब्ध कार्य की सिद्धि नहीं होती। इक्षुवन, पुष्पित-फलित उद्यान, शालिवन, चैत्यगृह, भग्नत्व आदि दोषों से रहित स्थान, सानुनाद स्थान-वह स्थान, जहां प्रतिध्वनि होती है, प्रदक्षिणावर्त जल वाली नदी, पद्मसरोवर-ये आलोचना के लिए प्रशस्त स्थान हैं। भगवती आराधना के अनुसार अर्हत् और सिद्धों के स्थान, सागर, उद्यान में स्थित भवन, तोरण, प्रासाद, नाग और यक्षों के स्थान पर आलोचना करनी चाहिए। पाराशरस्मृति के अनुसार जब भी प्रायश्चित्त दिया जाए, तब देवमंदिर के सामने ही दिया जाए। आलोचना के साथ प्रशस्त काल का भी गहरा सम्बन्ध है। यदि आचार्य के पास पर्याप्त समय न 1. पंचा 15/16, 17 ; दुविहेणऽणुलोमेणं, आसेवणवियडणाभिहाणेणं। आसेवणाणुलोमं, जं जह आसेवियं वियडे।।। आलोयणाणुलोम, गुरुगऽवराहे उ पच्छओ वियडे। पणगादिणा कमेणं, जह जह पच्छित्तवुड्डी उ।। २.व्यभा 307,308, भआ 557,558 3. व्यभा 306 मटी प. 40 / 4. भआ 558,559 / 5. भआ 559 विटी पृ. 400 / 6. व्यभा 313 मटी प. 41 / ७.भआ 560 / ८.पारा 8/38 /