________________ जीतकल्प सभाष्य हो तो उस समय आलोचना नहीं करनी चाहिए। इसी प्रकार सूर्यास्त के समय, रोगी की परिचर्या के समय आलोचना नहीं करनी चाहिए। जिस समय आलोचक स्वयं श्रान्त हो अथवा आचार्य श्रान्त या क्लान्त हों, उस समय संक्षेप में आलोचना करनी चाहिए, जैसे-आज पुर:कर्म या पश्चात्कर्म का सेवन किया। यदि उस समय अन्य आवश्यक कार्य हो तो दोष सम्बन्धी उतनी बात अवश्य बतानी चाहिए, जिसे बताए बिना शुद्धि न हो अथवा वह आहार आदि न कर सके। ___ भाष्यकार के अनुसार शुक्ल और कृष्ण पक्ष की चतुर्थी, षष्ठी, अष्टमी, नवमी और द्वादशी-ये तिथियां निसर्गतः शुभ कार्य के लिए वर्जनीय हैं अतः इन तिथियों में आलोचना नहीं करनी चाहिए। आलोचना के लिए अप्रशस्त सात नक्षत्र भी वर्जनीय हैं-१. सन्ध्यागत 2. रविगत 3. विद्वारिक 4. संग्रह 5. विलम्बिहराहहत और 7 ग्रहभिन्न / सन्ध्यागत नक्षत्र में आलोचना करने से कलह विलम्बि नक्षत्र में करने से कुभक्त की प्राप्ति, विद्वारिक नक्षत्र में शत्रु की विजय, रविगत नक्षत्र में असुख, संग्रह नक्षत्र में व्युद्ग्रह, राहुहत नक्षत्र में मरण तथा ग्रहभिन्न नक्षत्र में रक्त का वमन होता है। काल की दृष्टि से व्याघात आदि दोष रहित द्वितीया, तृतीया आदि तिथियां, प्रशस्त करण और मुहूर्त आलोचना के लिए प्रशस्त काल है। प्रशस्त भाव की दृष्टि से जब प्रशस्त ग्रह उच्च स्थानगत हों, तब आलोचना करनी चाहिए। टीकाकार मलयगिरि के अनुसार सूर्य का मेष, चन्द्रमा का वृषभ, मंगल का मकर, बुध का कन्या, बृहस्पति का कर्क , शुक्र का मीन और शनैश्चर का तुला-ये ग्रहों के उच्चस्थान हैं। आचार्य हरिभद्र के अनुसार क्षीरयुक्त वटवृक्ष आदि प्रशस्त द्रव्य, जिनमंदिर आदि प्रशस्त क्षेत्र, पूर्णिमा आदि शुभ तिथियां प्रशस्त काल तथा शुभोपयोग प्रशस्त भाव है। आलोचना के लिए पूर्व, उत्तर और चरंती दिशा-प्रशस्त दिशा है। जिस दिशा में तीर्थंकर, केवली, मनःपर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी, चतुर्दशपूर्वी, त्रयोदशपूर्वी यावत् नवपूर्वी अथवा युगप्रधान आचार्य विहरण करते हों, वह चरंती दिशा कहलाती है। यदि आलोचना देने वाले गुरु पूर्वाभिमुख हैं तो आलोचक १.ओनि 518,519 काले य पहुप्पंते, उच्चाओ वावि ओहमालोए। वेला गिलाणगस्स व, अइच्छइ गुरू व उच्चाओ।। पुरकम्मपच्छकम्मे, अप्पेऽसुद्धे य ओहमालोए। तुरियकरणम्मि जं से, न सुज्झई तत्तिअंकहए।। २.व्यभा 309-12 / 3. व्यभा 314 ; उच्चट्ठाणा गहा य भावम्मि। 4. व्यभा 314 मटी प.४१ / 5. पंचा 15/20; दव्वे खीरदुमादी, जिणभवणादी य होइ खेत्तम्मि। पुण्णतिहि पभितिकाले, सुहोवओगादि भावे उ।। 6. व्यभा 314 मटी प.४२।