________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 89 गुरु के दाहिनी ओर उत्तराभिमुख होकर बैठता है। यदि आचार्य उत्तराभिमुख होकर बैठें तो वह वामपार्श्व में पूर्वाभिमुख होकर बैठता है। यदि आलोचनार्ह आचार्य तीर्थंकर आदि विशिष्ट व्यक्तियों की विहरण दिशा के अभिमुख बैठे हों तो आलोचक द्वादशावर्त वंदना देकर हाथ जोड़कर खड़ा रहे। आलोचना के समय निषद्या एवं कृतिकर्म-विधि आलोचना करते समय आलोचक को औपचारिक विनय करना भी आवश्यक है। इसके बिना आचार्य की मानसिक प्रसन्नता को प्राप्त नहीं किया जा सकता। भाष्यकार के अनुसार जिसके पास आलोचना की जाए, वह यदि अवमरात्निक हो तो भी उसके प्रति कृतिकर्म करना चाहिए। यदि साध्वी के पास आलोचना की जाए तो उसके प्रति भी कृतिकर्म करना चाहिए। आलोचक साधु आलोचनाह के लिए अपने नवीन कल्प-कंबल से निषद्या तैयार करता है। यदि कंबल न हो तो अन्य से प्रातिहारिक कल्प ग्रहण करके आचार्य की निषद्या करता है। निषद्या के संदर्भ में एक प्रश्न उपस्थित किया गया कि यदि कोई आलोचनार्ह स्वभावतः निषद्या पर नहीं बैठना चाहे तो उसके लिए निषद्या करनी चाहिए या नहीं? इसका उत्तर देते हुए आचार्य कहते हैं कि आचार्य चाहें या नहीं लेकिन शिष्य को औपचारिक विनय की दृष्टि से निषद्या अवश्य करनी चाहिए। जो शिष्य निषद्या किए बिना आलोचना करता है, वह प्रायश्चित्त का भागी होता है तथा निषद्या करने वाला विनीत एवं प्रशंसा का पात्र होता है। इस संदर्भ में व्यवहार भाष्यकार ने नापित और राजा का दृष्टान्त प्रस्तुत किया है। एक राजा के सिर में बाल नहीं थे, उसके दाढ़ी, मूंछ भी नहीं थी इसलिए नियुक्त नापित राजा की हजामत करने नहीं जाता था। राजा ने उसको निष्कासित करके दूसरा नापित नियुक्त कर दिया। वह हर सातवें दिन आकर राजा के बाल, मूंछ आदि काटने का अभिनय करता था। राजा ने समय आने पर उसको पुरस्कृत किया। गरु जितनी बार आलोचना देते हैं, उतनी ही बार निषद्या करनी चाहिए। यदि सभी अपराधों की एक साथ आलोचना की जाए तो एक ही निषद्या करनी होती है। निषद्या और आलोचना के सम्बन्ध में चतुर्भगी प्राप्त होती है 1. एक निषद्या, एक आलोचना। 2. (अतिचार विस्मृत होने पर) एक निषद्या, अनेक आलोचना। 3. अनेक निषद्या, एक आलोचना। 4. अनेक निषद्या, अनेक आलोचना। १.भा 4536 टी पृ. 1225; संयतीनामप्यालोचना- सूत्रार्थनिमित्तं कृतिकर्म कर्त्तव्यम्। 2. व्यभा 315 मटी प 42 / 3. व्यभा 586 मटी प 42, निचू 4 पृ. 382 /