________________ जीतकल्प सभाष्य चतुर्थ भंग में अनेक प्रतिसेवनाएं हो जाने के कारण अनेक दिनों तक निषद्या करके आलोचना करना तथा तृतीय भंग में गुरु को यदि बार-बार कायिकी भूमि जाना पड़े तो अनेक निषद्या में एक आलोचना होती है। जो सिंहानुग आलोचनार्ह होते हैं, वे अनेक कम्बलों वाली निषद्या पर स्थित होकर प्रायश्चित्त देते हैं। वृषभानुग एक कम्बल वाली निषद्या पर बैठकर प्रायश्चित्त देते हैं तथा क्रोष्टुकानुग रजोहरण निषद्या अथवा औपग्रहिक पादप्रोञ्छन पर स्थित होकर प्रायश्चित्त देते हैं। इसी प्रकार आलोचक भी तीन प्रकार के होते हैं-सिंहानुग, वृषभानुग और क्रोष्टुकानुग। सिंहानुग आचार्य के समक्ष यदि आलोचक सिंहानुग होकर आलोचना करता है तो वह अशुद्ध है, प्रायश्चित्त का भागी है। यदि वह वृषभानुगत्व या क्रोष्टुकानुगत्व के रूप में आलोचना करता है तो वह शुद्ध है। यदि वृषभानुग आचार्य के समक्ष क्रोष्टुकानुगत्व के रूप में आलोचना करता है तो शुद्ध है। इसी प्रकार क्रोष्टुकानुग गीतार्थ आचार्य के समक्ष क्रोष्टुकानुग की तरह या उत्कटुकासन में आलोचना करता है तो शुद्ध है। सिंहानुग आचार्य की यथायोग्य निषद्या न करने पर एक मासिक, वृषभानुग आचार्य की यथायोग्य निषद्या न करने पर द्विमासिक तथा क्रोष्टुकानुग आचार्य की यथायोग्य निषद्या न करने पर त्रैमासिक प्रायश्चित्त आता है। यदि आलोचक उत्कटुक आसन में आलोचना करता है तो वह शुद्ध है। निषद्या और पादप्रोञ्छन पर बैठकर आलोचना करने की भजना है।' सिंहानुग, वृषभानुग और क्रोष्टुकानुग के साथ सम आसन पर बैठकर आलोचना करने वाले को चतुर्गुरु प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। बिना कारण बैठने या अप्रमार्जन आदि दोष में लघुमास प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। आलोचना के समय आलोचनार्ह ऊपर और आलोचक नीचे बैठे तो यह आलोचना की सम्यक् सामाचारी हैं। यदि आलोचनार्ह आज्ञा दे तो आलोचक किसी भी आसन में बैठ सकता है। यदि पार्श्वस्थ और पश्चात्कृत श्रमणोपासक से आलोचना करनी पड़े, वे कृतिकर्म न करवाना चाहें तो उनके लिए निषद्या की रचना करके उन्हें प्रणाम करके आलोचना करनी चाहिए। पश्चात्कृत को इत्वरिक सामायिक व्रत तथा रजोहरण आदि लिंग देकर उसकी निषद्या करके कृतिकर्म-वंदन करना चाहिए। यदि वह कृतिकर्म की अनिच्छा प्रकट करे तो वचन और काया से प्रणाम करके आलोचना करनी १.व्यभा 447 / __ वा सो कोल्लुगाणुगो। 2. निभा 4, चू. पृ. 382 ; तत्थ जो महंतणिसिज्जाए ठितो, ३.व्यभा 586, विस्तार हेतु देखें व्यभा 587-96 / सुत्तमत्थं वाएति चिट्ठइ वा सो सीहाणुगो। जो एक्कम्मि काम्म 4. निचू 4 पृ. 382; जइ उक्कुडुओ आलोएति तो सुद्धो। निच प3 कप्पे ठितो वाएति चिट्ठइ वा सो वसहाणुगो। जो रयहरण- णिसेज्जपादपुंछणेसु भयणा। णिसेज्जाए उवग्गहियपादपुंछणे वा ठितो वाएति चिट्ठति / शासक