________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श चाहिए। साध्वियां आचार्य के लिए निषद्या की रचना नहीं करतीं।' साध्वियों की आलोचना किसके पास? आर्यरक्षित अंतिम आगम व्यवहारी (नवपूर्वधर) थे। वे अपने आगमबल से जान लेते थे कि अमुक साध्वी को छेदसूत्र की वाचना देने में दोष नहीं है तो वे उसको वाचना देते थे। आर्यरक्षित के पश्चात् श्रुतव्यवहारी साधुओं ने सोचा कि छेदसूत्र के अध्ययन से साध्वियां अपनी हानि न कर लें अतः उन्होंने साध्वियों को छेदसूत्र की वाचना देना बंद कर दिया इसलिए आर्यरक्षित के समय तक साध्वियां मूलगुण से सम्बन्धित अपराध की आलोचना छेदसूत्र सम्पन्न प्रवर्तिनी साध्वी के पास करती थीं। कभी-कभी गीतार्थ साधु के अभाव में श्रमण भी साध्वियों के पास आलोचना करते थे। गीतार्थ साध्वी के अभाव में साध्वियां कृतयोगी-छेदसूत्रधर साधु के पास आलोचना करती थीं। आर्यरक्षित के बाद साधुओं के पास ही साध्वियों की भी आलोचना होने लगी। उस समय भी कुछ आचार्यों की मान्यता थी कि चतुर्थ व्रत की आलोचना स्वपक्ष अर्थात् श्रमणी की श्रमणी के पास तथा श्रमण की श्रमण के पास होनी चाहिए क्योंकि ब्रह्मचर्य व्रत सम्बन्धी आलोचना परपक्ष से करने पर दृष्टिराग तथा मुखविकार से भाव को समझकर परस्पर सम्बन्ध स्थापित हो सकता है। निर्ग्रन्थी यदि निर्ग्रन्थ के पास आलोचना करती है तो निर्ग्रन्थ कह सकता है कि तुम मेरे साथ भी यह दोष सेवन करके फिर प्रायश्चित्त लेना।' आचार्य या साधुओं के पास साध्वी की आलोचना करने की भी विधि थी। भाष्यकार के अनुसार जहां लोहार आदि दिखाई देते हों लेकिन दूरी के कारण सुनाई न देता हो तो साध्वी बीच में पर्दा डाल कर आचार्य के पास आलोचना करे। यदि पर्दा लगाने का अवकाश न हो तो साध्वी भूमि पर दृष्टि टिकाकर आलोचना करे। आलोचना के समय यदि श्रमण साध्वी को विकार युक्त दृष्टि से देखता है तो चतुर्गुरु प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। आलोचना के समय परिषद् आलोचना के समय आचार्य के पास राहस्यिकी परिषद् होती है। साधु और साध्वी की यदि स्वपक्ष में आलोचना होती है तो चतुष्कर्णा परिषद् होती है-दो आलोचनाह के कान तथा दो आलोचक के, इस प्रकार चतुष्कर्णा परिषद् होती है। आचार्य वृद्ध हों तो साध्वियों द्वारा की जाने वाली आलोचना के समय षट्कर्णा परिषद् भी होती है-आचार्य, प्रवर्तिनी और आलोचक साध्वी। यदि प्रवर्तिनी या अन्य साध्वी १.व्यभा 970, 971 / २.बृभाटी पृ. 115 ; निषद्यां चाचार्यस्य न करोति। ३.व्यभा 2365-67 / 4. व्यभा 2361-64 / ५.व्यभा 2374 /