________________ जीतकल्प सभाष्य तरुण आचार्य के पास आलोचना करती है तो उस समय अष्टकर्णा परिषद् होती है-एक आचार्य, एक साधु, एक प्रवर्तिनी और एक साध्वी। यदि आचार्य और आलोचक साध्वी दोनों तरुण हों तो उनके पास एक स्थविर और एक स्थविरा भी रहनी चाहिए। सदृश वय वाले सहायक का नियमतः वर्जन करना चाहिए। यदि ऐसा संभव न हो तो एक पटु क्षुल्लक या क्षुल्लिका को पास में रखना चाहिए। इस स्थिति में आलोचना के समय दशकर्णा परिषद् हो जाती है। इस प्रकार आलोचना काल में परिषद् के छह विकल्प हो सकते हैं 1. साधु साधु के पास - दो - चतुष्कर्णा परिषद्। 2. स्थविरा साध्वी स्थविर आचार्य के पास - तीन - षट्कर्णा परिषद्। .. 3. स्थविरा तरुण के पास –तीन - षट्कर्णा परिषद् / 4. तरुणी स्थविर के पास - तीन - षट्कर्णा परिषद् / 5. तरुणी तरुण के पास - चार - अष्टकर्णा परिषद् / 6. सदृश वय - पांच - दशकर्णा परिषद्। दिगम्बर परम्परा में आर्यिकाओं की आलोचना का उल्लेख नहीं मिलता अतः वहां स्पष्ट निर्देश है कि अकेले आचार्य को एकान्त में ही आलोचक की आलोचना सुननी चाहिए। चारित्रसार की टीका में उल्लेख है कि यदि स्त्री आलोचना करे तो दो स्त्री और एक गुरु अथवा दो गुरु और एक स्त्री होनी चाहिए। आलोचना अंधकारयुक्त स्थान में नहीं अपितु सूर्य के प्रकाश में होनी चाहिए। यदि अनेक आचार्य एक ही दोष को सुनें तो आलोचक लज्जा और खेद का अनुभव करता है। इसी प्रकार एक आचार्य अनेक क्षपकों की आलोचना एक साथ सुने तो अनेकों की आलोचना एक साथ याद रखनी कठिन होने के कारण योग्य प्रायश्चित्त देना संभव नहीं होता। आलोचना काल में सहवर्ती साधु और साध्वी की अर्हता आलोचना के समय साथ रहने वाला साधु और साध्वी भी अर्हता सम्पन्न होने चाहिए। भाष्यकार के अनुसार आचार्य के पास रहने वाला साधु ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और विनय से सम्पन्न, प्रतिलेखना आदि क्रियाओं में जागरूक, उपशम गुण से सम्पन्न, अवस्था से परिणत तथा शास्त्र के सही अर्थ का ज्ञाता 1. बृभा 391 टी पृ. 115 ; सल्लुद्धरणे समणस्स, चाउकण्णा रहस्सिया परिसा। अज्जाणं चउकण्णा, छक्कण्णा अट्ठकण्णा वा।। 2. व्यभा 2372, थेरो पुण असहायो, निग्गंथी थेरिया वि ससहाया। सरिसवयं च विवज्जे, असती पंचम पहुं कुज्जा।। 3. काअ 452 टी पृ. 343 ; एको गुरुः द्वे स्त्रियौ अथवा द्वौ गुरु एका स्त्रीति। 4. भआ 562 टी पृ.४०२।