________________ 66 जीतकल्प सभाष्य करने की बात कहते हैं। इस उपक्रम से मुनि की विशोधि हो जाती है और वह संयम में स्थिर हो जाता है। उपाय के अभाव में प्रतिसेवी विशोधि को भूलकर और अधिक कलुषित हो जाता है। कुछ भी प्रायश्चित्त न देने पर भी अनवस्था दोष होता है। दुर्बल को कम और बलिष्ठ को अधिक प्रायश्चित्त देने पर तर्क उपस्थित हो सकता है कि निर्बल के प्रति आचार्य का राग और बलिष्ठ के प्रति द्वेष है। इस तर्क का समाधान देते हुए आचार्य कहते हैं कि जैसे नवोदित अग्नि शीघ्र ही बुझ जाती है, वैसे ही दुर्बल व्यक्ति को अधिक प्रायश्चित्त देने से उसका धृतिबल और संहनन टूट जाता है लेकिन बड़े काष्ठ की प्रज्वलित अग्नि अन्य काष्ठों को भी जला देती है अतः धृति और संहनन से बलिष्ठ व्यक्ति बड़े से बड़े प्रायश्चित्त को वहन कर सकता है। इसी प्रकार दुर्बल को अधिक प्रायश्चित्त देने पर वह टूट जाता है और बलिष्ठ को कम प्रायश्चित्त देने पर उसकी शुद्धि नहीं होती। ___ यदि आचार्य दोष के अनुरूप प्रायश्चित्त न देकर कम प्रायश्चित्त देते हैं तो भी प्रतिसेवक की शोधि नहीं होती। इस संदर्भ में भाष्यकार ने राजकन्याओं का दृष्टान्त प्रस्तुत किया है। राजा की कन्याएं गवाक्ष आदि का अवलोकन करती थीं, अंत:पुर पालक उनका निवारण नहीं करता था। एक बार वे किसी धूर्त के साथ भाग गईं। इसी प्रकार दूसरे अंत:पुर पालक ने जैसे ही कन्या को गवाक्ष में देखा, उसे उपालम्भ देकर उसका निवारण किया। यह देखकर शेष कन्याओं के मन में भी भय उत्पन्न हो गया। राजा ने उस अंत:पुर पालक को सम्मानित किया। ___ गीतार्थ और अगीतार्थ को प्रायश्चित्त देने में भी आचार्य को सापेक्षता का प्रयोग करना पड़ता है। इस संदर्भ में भाष्यकार ने वणिक् और मरुक का दृष्टान्त प्रस्तुत किया है। वणिक् और मरुक बीस-बीस शकटों पर माल लेकर चले। सबमें समान वजन था। शुल्कपाल ने प्रत्येक शकट का बीसवां हिस्सा शुल्क मांगा। वणिक् ने तत्काल चतुराई से एक शकट उसको दे दिया लेकिन मरुक ने प्रत्येक शकट से बीसवां हिस्सा दिया। गीतार्थ साधु वणिक् के समान होता है, वह स्थापना आरोपणा के बिना ही प्रायश्चित्त स्वीकार कर लेता है लेकिन अगीतार्थ मरुक के समान होता है, उसे स्थापना आरोपणा के विधान से प्रायश्चित्त दिया जाता है, तभी उसे विश्वास होता है कि मेरी शुद्धि हुई है। अध्यवसाय भेद से भी प्रायश्चित्त में तरतमता हो जाती है। जो अपराध करके अनुताप करता है पश्चात्ताप करता हुआ मन ही मन दु:खी होता है, उसके अनुताप से प्रायश्चित्त भी कम हो जाता है। जो 1. जीभा 304-07, व्यभा 4205-08 / २.व्यभा 494 / 3. व्यभा६६६-६९। ४.व्यभा 453-57