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________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 65 घर में ही कर दी जाती है, अधिक मैले वस्त्र को नदी के तट पर जाकर नाना प्रयत्नों से साफ किया जाता है, वैसे ही छेद प्रायश्चित्त तक साधुत्व अवस्था में ही शुद्धि का उपक्रम होता है। बाद के प्रायश्चित्तों में साधुत्व से बाहर जाकर पुन: उपस्थापना दी जाती है। पंचकल्पभाष्य में इसके लिए संवासी और प्रवासी शब्द का प्रयोग हुआ है। समान अपराध होने पर भी प्रायश्चित्त-दान में दारुण स्वभाव वाले को अधिक तथा भद्र स्वभाव वाले को कम प्रायश्चित्त मिलता है। इस विषमता का हेतु पक्षपात नहीं, अपितु विवेक है। भाष्यकार कहते हैं कि इंद्रिय विषयों की प्राप्ति समान होने पर भी एक व्यक्ति उनसे विरक्त होता है और दूसरा आसक्त अत: इंद्रियों के विषय प्रधान नहीं, प्रधान है अध्यात्म और मनोभाव / प्रायश्चित्त-प्राप्ति में भी राग और द्वेष प्रमाण बनते हैं, इंद्रियों के अर्थ नहीं इसीलिए समान रूप से विषय-सेवन करने पर भी एक व्यक्ति महान् प्रायश्चित्त का भागी होता है, दूसरा अल्प। इसी प्रकार गलती की पुनरावृत्ति में भी प्रायश्चित्त-दान में अंतर आ जाता है। एक साधु मासिक प्रतिसेवना जितना अतिचार सेवन करके पुनः प्रतिसेवना न करने का संकल्प कर लेता है तो मासिक प्रायश्चित्त से उसकी शुद्धि हो जाती है लेकिन जो मुनि बार-बार प्रतिसेवना करता है उसे मासिक प्रतिसेवना जितने अतिचार के लिए मूल और छेद प्रायश्चित्त भी प्राप्त हो सकता है। - सापेक्ष आचार्य इस तथ्य को जानता है कि केवल अपराध प्रायश्चित्त की तुला नहीं हो सकता। वे जानते हैं कि प्रायश्चित्त देने में शारीरिक सामर्थ्य और मानसिक धृति भी निमित्त बनती है। इनके आधार पर कठोर या मृदु प्रायश्चित्त दिया जाता है। भाष्यकार ने इस बात को भी दृष्टान्त से स्पष्ट किया है कि समान रूप से रोग होने पर भी जो व्यक्ति शरीर से बलवान् है, उसे वमन-विरेचन आदि कर्कश क्रियाएं करवाई जा सकती हैं किन्तु जो शरीर से दुर्बल है, उसे मृदु क्रिया द्वारा स्वास्थ्य-लाभ करवाया जाता है। इसी प्रकार धृति और संहनन से युक्त को पूरा प्रायश्चित्त दिया जा सकता है। इन दोनों से हीन को कम या प्रायश्चित्त से मुक्त भी किया जा सकता है। उदाहरणार्थ किसी प्रतिसेवी को पांच उपवास, पांच आयम्बिल, पांच एकासन, पांच पुरिमार्ध और पांच निर्विगय–ये पांच कल्याणक प्रायश्चित्त स्वरूप प्राप्त हुए हों तो सापेक्ष आचार्य उस प्रतिसेवक मुनि की स्थिति देखकर नानाविध विकल्प प्रस्तुत करते हैं और सामर्थ्य के अनुसार प्रायश्चित्त वहन करने की बात कहते हैं। पांच कल्याणकों को वहन करने में असमर्थ मुनि को चार, तीन, दो और एक कल्याणक प्रायश्चित्त वहन करने को कहते हैं। वह न कर सकने पर एक निर्विगय १.पंकभा 1945, 1946 / 2. व्यभा 4026, मटी प.३०; तुल्येऽप्यपराधे दारुणानामन्यत प्रायश्चित्तमन्यत् भद्रकाणाम्। 3. व्यभा 1028, 1029 मटी प. 15 / 4. व्यभा 339 / 5. व्यभा 544,545 /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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