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________________ 64 जीतकल्प सभाष्य प्रायश्चित्त-दान में सापेक्षता एवं तरतमता प्रायश्चित्त-दान में सापेक्षता का होना अत्यन्त अनिवार्य है। निरपेक्षता प्रायश्चित्त को विकलांग बना देती है। जैन आचार्यों ने प्रायश्चित्त-दान के प्रतिपादन में अनेकान्त दृष्टि का प्रयोग किया है। एस. बी. ड्यू के अनुसार जैनों की प्रायश्चित्त-विधि प्रजातान्त्रिक स्वरूप को लिए हुए है। इसमें लचीलापन भी है।' सापेक्षता और निरपेक्षता को स्पष्ट करने के लिए भाष्यकार ने सापेक्ष और निरपेक्ष धनिक और धारणक का दृष्टान्त प्रस्तुत किया है। निर्धन को उधार दिया हुआ धन यदि प्राप्त नहीं होता है तो सापेक्ष धनिक कुछ समय प्रतीक्षा करता है, वह उससे दूसरा काम करवाकर अपने धन को उपाय से प्राप्त कर लेता है लेकिन निरपेक्ष धनिक स्वयं, धन तथा धारणक–तीनों की हानि कर देता है। सापेक्ष प्रतिसेवक प्राप्त सारे प्रायश्चित्त को सहजता से स्वीकार कर लेता है लेकिन निरपेक्ष प्रतिसेवक को यदि परिस्थिति समझे बिना प्रायश्चित्त दिया जाता है तो वह उससे विमुख होकर साधु वेश को छोड़ देता है। एक-एक के जाने से तीर्थ की हानि होती है। सापेक्ष आचार्य चारित्र की रक्षा और तीर्थ की अविच्छिन्न परम्परा चलाने में समर्थ होते हैं। वे शिष्य के प्रति सापेक्ष होकर सामर्थ्य के अनुसार प्रायश्चित्त वहन की अनुमति देते हैं। वे प्रतिसेवक के सम्मुख प्रायश्चित्त के अनेक विकल्प प्रस्तुत करके इच्छानुसार विकल्प ग्रहण करने की बात कहते हैं, जिससे प्रतिसेवक सहजता से प्रायश्चित्त का वहन कर सके। प्रायश्चित्तवाही मुनि के प्रति आचार्य की इस अनुकम्पा से वह शिष्य संयम में स्थिर रह जाता है। जैसे जौहरी गुणहीन बड़े रत्न का कम तथा गुणयुक्त छोटे रत्न का भी बहुत बड़ा मूल्य आंकता है अथवा बड़ी काचमणि का काकिणी जितना तथा छोटे से वज्ररत्न का भी एक लाख मुद्रा का मूल्य समझता है, वैसे ही आलोचनार्ह राग-द्वेष के अपचय और उपचय के आधार पर कम या.अधिक प्रायश्चित्त देते हैं। व्यवहारभाष्य में इसी तथ्य को जलकुम्भ और वस्त्र की चतुर्भगी से समझाया गया है - * एक वस्त्र एक जलकुम्भ से स्वच्छ होता है। * एक वस्त्र अनेक जलकुम्भों से स्वच्छ होता है। * अनेक वस्त्र एक जलकुम्भ से स्वच्छ होते हैं। * अनेक वस्त्र अनेक जलकुम्भों से स्वच्छ होते हैं। जैसे मल की वृद्धि-होने से जलकुटों की वृद्धि होती जाती है, वैसे ही प्रायश्चित्तदाता अपराध एवं राग-द्वेष की वृद्धि-हानि के आधार पर प्रायश्चित्त देते हैं। जैसे छह घड़ों से साफ होने वाले वस्त्रों की धुलाई - 1. Jain monasticjuris prudence p.25 / २.जीभा 292-303 / 3. जीभा 118-20 / 4. व्यभा 505-08 /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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