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________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श _ङा गया है। इसका सबसे अधिक प्रयोग निशीथ भाष्य एवं उसकी चूर्णि में किया गया है। उदाहरणार्थ कुछ प्रायश्चित्त एवं उनके प्रतीक इस प्रकार हैं• चतुर्लघु - ङ्क * लघुमास - * चतुर्गुरु - ङ्का * गुरु - द्दी या गु * षड्लघु - फु * लघु - द्दि या ल * शुद्ध - सु दशवैकालिक अगस्त्यसिंह चूर्णि में प्रायश्चित्त के प्रतीकाक्षर और प्रतीक अंक भी मिलते हैं। निर्ग्रन्थ और संयत में प्रायश्चित्त आचार-विशुद्धि की तरतमता के आधार पर जैन परम्परा में निर्ग्रन्थ के पांच भेद मिलते हैं१. पुलाक 2. बकुश 3. कुशील 4. निर्ग्रन्थ 5. स्नातक। भाष्यकार ने निर्ग्रन्थों में पाए जाने वाले प्रायश्चित्तों का उल्लेख किया है पुलाक निर्ग्रन्थ को तप प्रायश्चित्त तक प्रथम छह प्रायश्चित्त दिये जाते हैं। बकुश एवं प्रतिसेवना कुशील में स्थविरकल्पी को दश तथा जिनकल्पिक को आठ प्रायश्चित्त प्राप्त होते हैं। निर्ग्रन्थ के लिए आलोचना एवं विवेक-इन दो प्रायश्चित्तों का विधान है। स्नातक के लिए केवल विवेक प्रायश्चित्त विहित है। चारित्र के आधार पर प्रायश्चित्तों की योजना इस प्रकार है सामायिक चारित्र वाले स्थविरकल्पी को छेद और मूल छोड़कर आठ प्रायश्चित्त दिए जाते हैं। जिनकल्पिक सामायिक संयमी को तप पर्यन्त छह प्रायश्चित्त प्राप्त होते हैं। छेदोपस्थापनीय में स्थित स्थविरकल्पी के लिए दस प्रायश्चित्त तथा जिनकल्पी के लिए मूल पर्यन्त आठ प्रायश्चित्तों का विधान है। परिहारविशुद्ध स्थविरकल्पी के लिए प्रथम आठ तथा परिहारविशुद्ध जिनकल्पी के लिए प्रथम छह प्रायश्चित्तों का विधान है। सूक्ष्मसंपराय तथा यथाख्यातसंयत के लिए आलोचना तथा विवेक-ये दो प्रायश्चित्त विहित हैं। - जब तक तीर्थ का अस्तित्व है, तब तक निर्ग्रन्थों में बकुश एवं प्रतिसेवना कुशील तथा संयतों में इत्वरिक सामायिक संयत एवं छेदोपस्थापनीय चारित्र–इनका अस्तित्व रहेगा।' 1. दशअचू पृ. 250-52 / ५.जीभा 284, व्यभा 4187 / 2. जीभा 281, व्यभा 4184 / ६.जीभा 286-89, व्यभा 4189-92 / ३.जीभा 282, व्यभा 4185 / 4. जीभा 283, व्यभा 4186 /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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