________________ जीतकल्प सभाष्य , का सघन अंधकार क्षणभर में विलीन हो जाता है। प्रायश्चित्त बंधन नहीं अपितु पाप-मुक्ति का सशक्त उपाय है। उत्तराध्ययन सूत्र में प्रायश्चित्त के लाभों का वर्णन करते हुए भगवान् महावीर कहते हैं कि इससे जीव पाप कर्मों की विशोधि करता है। वह जीव अतिचार जन्य मलिनता से रहित हो जाता है। सम्यक् प्रायश्चित्त करने से जीव मार्ग-सम्यक्त्व तथा उसके फल-सम्यग्ज्ञान को विशुद्ध कर लेता है तथा आचार-चारित्र और उसके फल-मोक्ष की आराधना करता है। याज्ञवल्क्य स्मृति के अनुसार प्रायश्चित्त . करने से व्यक्ति निर्मल अंत:करण वाला तथा मानसिक प्रसन्नता को प्राप्त कर लेता है। महानिशीथ के अनुसार जैसे उपचार के अभाव में सर्प खाए व्यक्ति के न चाहने पर भी उसका विष आगे से आगे बढ़ता जाता है, वैसे ही जब तक व्यक्ति प्रायश्चित्त नहीं करता, उसका पाप बढ़ता जाता है। ग्रीष्मऋतु में सुस्वादु शीतल जल भीतर की गर्मी को उपशांत कर देता है, वैसे ही प्रायश्चित्त आत्मप्रदेशों . की उत्तप्तता को शान्त कर देता है। बड़े से बड़ा पाप करके भी प्रायश्चित्त कर लेने वाला व्यक्ति अपने परलोक को सुधार लेता है। स्थविरकल्पी और जिनकल्पी के प्रायश्चित्त में अंतर स्थविरकल्पी की अपेक्षा जिनकल्पी की साधना अधिक ऊंची होती है। जिनकल्पी के लिए अपवाद-सेवन का कोई विकल्प नहीं होता। स्थविरकल्पी को दश प्रायश्चित्त तथा जिनकल्पी को प्रारम्भ के आठ प्रायश्चित्तों की प्राप्ति होती है। दोष-सेवन के चार स्तरों-अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार और अनाचार में स्थविरकल्पी को प्रारम्भिक तीन के लिए तप प्रायश्चित्त प्राप्त नहीं होता, केवल मिथ्यादुष्कृत करने मात्र से उसके पाप की शुद्धि हो जाती है। जैसे कोई स्थविरकल्पी मुनि आधाकर्म आहार का निमंत्रण प्राप्त करके प्रस्थान कर देता है तथा उस आहार को ग्रहण कर लेता है तो वह उसको परिष्ठापित करके शुद्ध हो जाता है। उसे खाने पर अनाचार दोष होता है तो वह प्रायश्चित्त का भागी होता है लेकिन जिनकल्पी को अतिक्रम आदि चारों पदों में प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। प्रायः जिनकल्पी चारों पदों का सेवन नहीं करते जिनकल्पी को अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार में गुरुमास तथा अनाचार में चतुर्गुरु प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। स्थविरकल्पी यदि मन से अगुप्त या असमित है तो भी उसे तप प्रायश्चित्त नहीं आता लेकिन जो जिनकल्पी हैं, वे यदि मन से भी अगुप्त या असमित होते हैं तो उन्हें चतुर्गुरु प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। प्रायश्चित्तों के प्रतीकाक्षर प्राचीन हस्तप्रतियों में प्रायश्चित्त सम्बन्धी कुछ संक्षिप्त सांकेतिक संज्ञाओं का प्रयोग भी किया १.उ 29/17 / 4. व्यभा 434, निभा 6497, 6499 चू पृ. 338 / 2. याज्ञ 3/220 / ५.व्यभा 44 मटी. प. 18 / ३.जीभा 287 / 6. व्यभा 61 मटी प. 24 /