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________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 61 आचार्य के पास जाता है तो लघुमास प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। गुरु के पास जाकर दोषारोपण लगाता है तो गुरुमास प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। उसकी बात सुनकर आचार्य उस रत्नाधिक मुनि को बुलाकर इस संदर्भ में उससे पूछते हैं और आलोचना करने को कहते हैं, उस समय वह कहता है कि मुझ पर झूठा आरोप है तो उस अवमरात्निक को चतुर्लघु प्रायश्चित्त प्राप्त होता है, यदि अवमरात्निक कहता है कि मुझे इसके ज्ञातिजनों ने कहा है, ऐसा कहने पर चतुर्गुरु प्रायश्चित्त / गृहस्थों से पूछने का कहने पर यदि साधु गृहस्थों से पूछते हैं तो चतुर्गुरु प्रायश्चित्त, यदि गृहस्थ निषेध करते हैं कि यह नपुंसक नहीं है तो उस अवम को षड्गुरु प्रायश्चित्त, अन्य साधुओं द्वारा नपुंसक का प्रतिषेध करने पर छेद प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। इतना होने पर भी वह अपनी बात का समर्थन करते हुए यह कहता है कि ये गृहस्थ असत्य बोलते हैं तो उस अवमरात्निक को मूल प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। तुम दोनों साधु और गृहस्थ आपस में मिले हुए हो', ऐसा कहने पर उस अवमरानिक साधु को अनवस्थाप्य तथा 'तुम सब प्रवचन के बाहर हो', ऐसा कहने पर पाराञ्चित प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। यहां एक छोटी सी घटना में केवल वाणी के असत् प्रयोग करने से प्रायश्चित्त का विस्तार होता गया अतः भाष्यकार ने इसे प्रायश्चित्त-प्रस्तार के रूप में व्याख्यायित किया है। इसी प्रकार प्राणातिपातवाक् आदि के दृष्टान्त भी ज्ञातव्य हैं। इस घटना प्रसंग में यदि अवमरात्निक एक बार दोषारोपण लगाकर फिर उसका समर्थन नहीं करता है तो उसकी प्रायश्चित्त-वृद्धि नहीं होती। रत्नाधिक भी यदि रुष्ट नहीं होता है तो उसको प्रायश्चित्त की प्राप्ति नहीं होती। यदि अवमरालिक आग्रहवश बार-बार अपनी बात का समर्थन करता है और रत्नाधिक बार-बार रुष्ट होता है तो प्रायश्चित्त में वृद्धि होती जाती है।' प्रायश्चित्त वाहक - प्रायश्चित्त वहन के आधार पर प्रायश्चित्त वाहक के दो भेद हैं-निर्गत और वर्तमान / जो छेद आदि अंतिम चार प्रायश्चित्तों का वहन करते हैं, वे निर्गत तथा तप पर्यन्त प्रथम छह प्रायश्चित्तों में स्थित हैं, वे वर्तमान कहलाते हैं। इनके दो भेद मिलते हैं -संचयित और असंचयित। छह मास तक का प्रायश्चित्त वहन करने वाले संचयित तथा इससे अधिक प्रायश्चित्त को वहन करने वाले असंचयित कहलाते हैं।' प्रायश्चित्त के लाभ रात्रि का सघन अंधकार सूर्य की एक किरण से समाप्त हो जाता है, वैसे ही प्रायश्चित्त से आत्मा १.इस सारे प्रसंग के विस्तार हेतु देखें बृभा 6129-62, टी पृ. 1620-27 २.व्यभा 472 / 3. इनके भेद-प्रभेद एवं विस्तार हेतु देखें व्यभा 472-78 मटी प.१-३।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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