________________ 60 जीतकल्प सभाष्य अपराध के आधार पर प्रायश्चित्त के भेद ___ अपराध के आधार पर व्यवहारभाष्य में प्रायश्चित्त के चार भेद मिलते हैं१. प्रतिसेवना-निषिद्ध आचार का समाचरण / व्यवहारभाष्य में प्रतिसेवना को ही प्रायश्चित्त कहा गया है। इसका हेतु बताते हुए भाष्यकार कहते हैं कि प्रतिसेवना होने पर ही प्रायश्चित्त दिया जाता है, अन्यथा प्रायश्चित्त का निषेध है। 2. संयोजना-शय्यातर, राजपिण्ड आदि भिन्न अतिचार जन्य प्रायश्चित्तों की संकलना। 3. आरोपणा-एक दोष से प्राप्त प्रायश्चित्त में दूसरे दोष के प्रायश्चित्त का आरोपण करना। 4. प्रतिकुञ्चना-माया से बड़े दोष को भी छोटे दोष के रूप में बताना। जीतकल्पभाष्य में केवल प्रतिसेवना का वर्णन है अतः आगे भूमिका में केवल प्रतिसेवना का वर्णन किया जाएगा। संयोजना आदि का विस्तार व्यवहारभाष्य में द्रष्टव्य है। प्रायश्चित्त-प्रस्तार प्रस्तार का अर्थ है-रचना या स्थापना। यदि कोई साधु अप्रमत्त और निर्दोष साधु के ऊपर दोषारोपण करता है तो वह पाप से भारी होकर स्वयं उस प्रायश्चित्त का भागी होता है। भाष्यकार ने चार प्रकार के प्रस्तारों का उल्लेख किया है-१. ज्योतिष प्रस्तार 2. छंद प्रस्तार 3. गणित प्रस्तार और 4. प्रायश्चित्त प्रस्तार।' प्रायश्चित्त प्रस्तार के छह भेद किए हैं-१. प्राणवधवाक्’२. मृषावादवाक् 3. अदत्तादानवाक् 4. अविरतिकावाक् (अब्रह्मचर्यवाद) 5. अपुरुष-नपुंसकवाक् 6. दासवाक् / यहां प्रायश्चित्त-प्रस्तार का तात्पर्य यही होना चाहिए कि यदि साधु वाणी के द्वारा अभ्याख्यान लगाकर बार-बार उसका समर्थक करता है, गृहस्थों से पूछने की बात कहता है तो उसके प्रायश्चित्त का विस्तार होता चला जाता है। भाष्यकार ने इन सबको अनेक दृष्टान्तों से समझाया है। यहां नपुंसकवाक् का एक उदाहरण प्रस्तुत किया जा रहा है अवमरात्निक के सामाचारी आदि विषय में स्खलित होने पर रत्नाधिक मुनि के द्वारा बार-बार प्रेरित किए जाने पर अवमरात्निक मन में सोचता है कि मैं भी इसके साथ ऐसा व्यवहार करूंगा, जिससे यह अवम हो जाए अथवा प्रायश्चित्त का भागी हो जाए। अप्रमत्तता के कारण प्रयत्न करने पर भी वह रात्निक का कोई छिद्र नहीं देख पाता। वह मन में सोचता है कि मैं इसे नपुंसक सिद्ध करूंगा। यह सोचकर वह 1. व्यभा 52; पडिसेवणच्चिय पच्छित्तं.....। 3. बृभा 6130; सो जोतिस छंद गणित पच्छित्ते। २.व्यभा 36; पडिसेवणा य संजोयणा य आरोवणा य बोधव्वा। 4. बृभा 6133 / पलिउंचणा चउत्थी, पायच्छित्तं चउद्धा उ।।