________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श है। इनमें मूल के स्थान पर उपस्थापना तथा अनवस्थाप्य और पाराञ्चित-इन दोनों का परिहार में समावेश हो सकता है क्योंकि दोनों प्रायश्चित्तों में परिहार तप किया जाता है। धवलाकार ने भी इन दोनों का समावेश परिहार में किया है। मूलाचार में अनवस्थाप्य के स्थान पर परिहार तथा पाराञ्चित के स्थान पर श्रद्धान नामक प्रायश्चित्त का उल्लेख है। धवला में भी श्रद्धान नामक प्रायश्चित्त का उल्लेख है किन्तु प्रायश्चित्त के रूप में इसकी स्वीकृति गहन विमर्श की अपेक्षा रखता है। अपराध देश या सर्व जैसा होता है, उसी के आधार पर प्रतिसेवक को प्रायश्चित्त मिलता है। पणग से लेकर छेद प्रायश्चित्त तक देशभंग तथा मूल से ऊपर पाराञ्चित तक के प्रायश्चित्त सर्वभंग के अन्तर्गत आते हैं। ग्रंथकार ने प्रायश्चित्त के सभी भेदों के आगे अर्ह शब्द का प्रयोग किया है। प्रायश्चित्तार्ह शब्द प्रायश्चित्त दाता, प्रतिसेवक और प्रायश्चित्त-इन तीनों के लिए प्रयुक्त हो सकता है। जो जिस प्रायश्चित्त के योग्य हो, उसे द्रव्य, क्षेत्र आदि के आधार पर प्रायश्चित्त देने वाला प्रायश्चित्तार्ह अथवा जो प्रायश्चित्त के योग्य हो, (प्रतिसेवक) वह भी प्रायश्चित्तार्ह अथवा किस अपराध के लिए कौन सा प्रायश्चित्त उपयुक्त है, वह भी प्रायश्चित्तार्ह शब्द का वाचक है। बौद्ध परम्परा में आठ प्रकार के प्रायश्चित्तों का उल्लेख मिलता है-१. पाराजिक 2. संघादिशेष 3. नैसर्गिक 4. पाचित्तिय 5. अनियत 6. प्रतिदेशनीय 7. सेखिय 8. अधिकरण समय। इन सब प्रायश्चित्तों का विनयपिटक में विस्तार से वर्णन मिलता है। मनुस्मृति में पापमुक्ति के पांच स्थान निर्दिष्ट हैं-१. पाप को प्रकट करना, 2. पश्चात्ताप, 3. तपश्चरण, 4. वेदाध्ययन, 5. दान / ' उन्होंने जप को भी पाप-प्रक्षालन का हेतु माना है। गौतमधर्मसूत्र तथा वशिष्ठधर्मसूत्र में जप, तप, यज्ञ, उपवास एवं दान को पाप-मुक्ति का उपाय बताया है। अंगिराऋषि के अनुसार पाप का अनुताप और प्राणायाम-ये दो पापमुक्ति के साधन हैं। 1. त 9/22 / 2. षट्ध पु. 13, 5/4/26 पृ. 62 ; परिहारो दुविहो अणवट्ठओ पारंचिओ चेदि। 3. पंकभा 132, 133; पडिसेवगस्स होती, देसब्भंगो य सव्वभंगो य। अवराहे केरिसए, देसे सव्वे वि सो होति।। पणगादी जा छेदो, एसो खलु होति देसभंगो तु। मूलादिउवरिमेसं, णायव्वो सव्वभंगो तु / / 4. जैन बौद्ध भा. 2 पृ. 382 / 5. मनु 11/227; ख्यापनेनानुतापेन, तपसाऽध्ययनेन च। पापकृन्मुच्यते पापात् , तथा दानेन चापदि।। 6. मनु 11/251-53 / 7. गौतम 9/1/11 पृ. 201; तस्य निष्क्रयणानि जपस्तपो होम उपवासो दानम्। 8. प्रायश्चित्त विवेक पर उधत अंगिरा व्याख्या पृ.३०।