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________________ 58 जीतकल्प सभाष्य जायेगा। जो छेदसूत्र के अर्थधर आचार्य होते हैं, वे आज्ञा और धारणा से व्यवहार करते हैं। आज भी छेद सूत्रों के सूत्र एवं अर्थ को धारण करने वाले मुनि हैं अतः व्यवहार चतुष्क का व्यवच्छेद चतुर्दशपूर्वी के साथ मानना युक्तिसंगत नहीं है। जब तक तीर्थ का अस्तित्व रहेगा, तब तक इन चारों का अस्तित्व रहेगा। प्रायश्चित्त के भेद सामान्य रूप से जैन परम्परा में दश प्रायश्चित्त प्रसिद्ध हैं लेकिन विवक्षा भेद से अलग-अलग भेद भी मिलते हैं-एक' दो' तीन चार छह सात आठ नौ और दस। सामान्यतया प्रायश्चित्त के दश भेद इस प्रकार हैं -1. आलोचना 2. प्रतिक्रमण 3. तदुभय 4. विवेक 5. व्युत्सर्ग 6. तप 7. छेद 8. मूल 9. अनवस्थाप्य 10. पाराञ्चित। तत्त्वार्थ भाष्यानुसारिणी में दश और बीस प्रकार के प्रायश्चित्त आर्ष आगम में उल्लिखित हैं, ऐसा निर्देश है। बीस प्रकार के प्रायश्चित्त कौन से थे, वह परम्परा आज प्राप्त नहीं है। आचार्य उमास्वाति ने तत्त्वार्थ सूत्र में प्रायश्चित्त के नौ भेद स्वीकृत किए हैं। वहां मूल, अनवस्थाप्य और पाराञ्चित-इन तीन प्रायश्चित्तों के स्थान पर परिहार, उपस्थापना-इन दो प्रायश्चित्तों का उल्लेख १.जीभा 267, व्यभा 4174 / प्रायश्चित्त है। (स्था 4/132) पंचकल्पभाष्य में चार भेदों 2. पंचकल्पभाष्य में असंयम को एकविध प्रायश्चित्त माना में प्रायश्चित्त के चार विकल्प प्रस्तुत हैंहै। (पंकभा 143) 1. ज्ञानवान्त, दर्शनवान्त, चारित्रवान्त और त्यक्तकृत्य। 3. राग और द्वेष (पंकभा 143) / 2. द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव / , .. 4. ठाणं सूत्र में ज्ञान, दर्शन और चारित्र के विषय में अतिक्रम, 3. अतिक्रम, व्यतिक्रम, अतिचार, अनाचार। व्यतिक्रम, अतिचार और अनाचार होने पर प्रायश्चित्त का 4. क्रोध, मान, माया, लोभ। (पंकभा 136, 137) विधान है। (स्था 3/444-47) अतः प्रायश्चित्त के तीन 6. प्रायश्चित्त के छह भेदों में आलोचना से तप पर्यन्त का भेद किए हैं-ज्ञान प्रायश्चित्त, दर्शन प्रायश्चित्त, चारित्र समाहार किया गया है। (स्था 6/19, पंकभा 141) प्रायश्चित्त। (स्था 3/470, पंकभा 137) पंचकल्पभाष्य 7. प्रायश्चित्त के सात भेदों में आलोचना से छेद पर्यन्त सात में आहार, उपधि और शय्या को त्रिविध प्रायश्चित्त के रूप भेद स्वीकृत किए गए हैं। (पंकभा 141) में स्वीकार किया है। (पंकभा 138) प्रकारान्तर से प्रायश्चित्त 8. आलोचना से मूल तक आठ प्रायश्चित्त स्वीकृत किए हैं। के तीन भेदों में आलोचना, प्रतिक्रमण और तदुभय का (स्था 8/20,) छेद के देशछेद और सर्वछेद-ये दो भेद उल्लेख भी मिलता है। (स्था 3/448, पंकभा 139) करने से अष्टविध प्रायश्चित्त होते हैं। मूल आदि का प्रायश्चित्त के त्रिविध भेद में भाष्यकार ने सचित्त, अचित्त सर्वछेद में समाहार हो जाता है। (पंकभा 141) और मिश्र-इन तीनों को भी स्वीकार किया है। (पंकभा 9. आलोचना से अनवस्थाप्य तक नौ प्रायश्चित्त स्वीकृत किए 139) हैं। (स्था 9/42) पंचकल्पभाष्य में सर्वछेद के दो भेद५. चौथे स्थान में प्रायश्चित्त के चार प्रकार हैं। ज्ञान, दर्शन संयम की उपस्थापना और मूल करने पर प्रायश्चित्त के और चारित्र के द्वारा चित्त की शुद्धि और पाप का नाश होता नौ भेद होते हैं। (पंकभा 142) है इसलिए कारण में कार्य का उपचार करके इन तीनों को १०.इसी में कुछ समय के लिए क्षेत्र से बाहर करना-यह प्रायश्चित्त माना है तथा चौथा प्रायश्चित्त है-व्यक्तकृत्य। जोड़ने पर प्रायश्चित्त के दश भेद होते हैं। (पंकभा 142) / इसका तात्पर्य है कि गीतार्थ मुनि जागरूकतापूर्वक जो 11. त 9/22 भाटी 2 पृ. 253 ; आर्षे तु दशधा विंशतिधा कार्य करता है, वह पापविशुद्धिकारक होता है इसलिए वह वाभिहितं प्रायश्चित्तम्। सवछदम
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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