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________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 57 अनवस्थाप्य आदि। अर्थ से विमर्श करके जो प्रायश्चित्त दिया जाता है, वह नैश्चयिक प्रायश्चित्त है। यह विमर्श छह पदों से किया जाता है-१. किसको? 2. कैसे? 3. कहां? 4. कब? 5. किसमें 6. कितने काल तक। इन पदों में अर्थ से विमर्श करके प्रायश्चित्त दिया जाता है• प्रथम पद में गीतार्थ अथवा अगीतार्थ किसने प्रतिसेवना की है, यह विमर्श होता है। * दूसरे पद में यतना से प्रतिसेवना की अथवा अयतना से, यह चिन्तन होता है। * तृतीय पद में मार्ग में प्रतिसेवना की या नगर में? यह विमर्श होता है। * चौथे पद में प्रतिसेवना सुभिक्ष में हुई या दुर्भिक्ष में अथवा रात में हुई या दिन में, यह विमर्श होता है। * पांचवें पद में प्रतिसेवना सकारण हुई या निष्कारण अथवा किस प्रकार के पुरुष से हुई, आचार्य से अथवा सामान्य साधु से? यह विमर्श होता है। * छठे 'केच्चिर' पद में कितनी बार प्रतिसेवना हुई तथा कितने समय तक अतिचार सेवन किया, इसका विमर्श होता है। ___इन छह पदों से चिन्तन करके प्रायश्चित्त दिया जाता है, वह शुद्ध होता है। परिस्थिति समझे बिना राग-द्वेष पूर्वक दिया जाने वाला प्रायश्चित्त अशुद्ध होता है।' प्रायश्चित्त की स्थिति कब तक? ___ कुछ आचार्यों का अभिमत है कि आगमव्यवहारी का विच्छेद होने से प्रायश्चित्तदाता का अभाव हो गया अतः प्रायश्चित्त न रहने से शुद्ध चारित्र भी विद्यमान नहीं है। वर्तमान में संघ ज्ञान और दर्शनमय रह गया है। चारित्र के निर्यापकों का विच्छेद हो गया है। इस प्रश्न का समाधान भाष्य में अनेक हेतुओं से दिया गया है। भाष्यकार के अनुसार सब प्रायश्चित्तों का विधान प्रत्याख्यान प्रवाद नामक नौवें पूर्व में है। वहीं से निशीथ, कल्प और व्यवहार का निर्मूहण हुआ है अत: वर्तमान में चारित्र के प्रवर्तक, प्रायश्चित्त के प्रज्ञापक तथा प्रायश्चित्त-वाहक सभी विद्यमान हैं। जब तक षट्काय संयम है, तब तक सामायिक और छेदोपस्थापनीय-ये दो चारित्र रहेंगे। चारित्र की विद्यमानता में प्रायश्चित्त का अस्तित्व अनिवार्य है। भाष्यकार के अनुसार चतुर्दशपूर्वी और प्रथम संहनन का विच्छेद होने के बाद तीर्थ में अनवस्थाप्य और पाराञ्चित-इन अंतिम दो प्रायश्चित्तों का विच्छेद हो गया। प्रथम आठ प्रायश्चित्त तीर्थ की अवस्थिति तक रहेंगे, अंतिम दुःप्रसभ आचार्य के कालगत होने पर तीर्थ और चारित्र का भी विच्छेद हो 1. पंकभा 1850-54 / २.जीभा 268-80,311-19, व्यभा 1528-39 / बीमा 265 / 4. जीभा 265-68, व्यभा 4174, 4175 / ५.जीभा 317 / ६.जीभा 277 /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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