________________ 56 जीतकल्प सभाष्य का प्रयोग करने से प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। असंयम-स्थानों की राशि को उपमित करते हुए भाष्यकार कहते हैं कि पल्योपम और सागरोपम में जितने बालाग्र होते हैं, उससे भी असंख्येय गुणा अधिक असंयमस्थान हैं। प्रायश्चित्त-स्थान भी उतने ही हैं। कुछ आचार्यों की मान्यता के अनुसार उन बालानों के परमाणु जितने खण्ड कर दिए जाएं, उतने असंयम-स्थान हैं। अप्रमत्त मुनि भी परीषहों को सहन न कर पाने से तथा इष्ट-अनिष्ट विषयों में राग-द्वेष से अतिक्रमण करने पर प्रायश्चित्त के भागी हो जाते हैं। तत्त्वार्थवार्तिक के अनुसार असंख्येय लोकाकाश प्रदेश परिमाण जीव के परिणाम होते हैं। जितने परिणाम होते हैं, उतने ही अपराधस्थान होते हैं। जितने अपराध स्थान हैं, उतने ही प्रायश्चित्त-स्थान होने चाहिए लेकिन ऐसा संभव नहीं होता। व्यवहार नय की दृष्टि से दोषों की लघुता और गुरुता के आधार पर इन सबका समावेश आलोचना आदि दश प्रायश्चित्तस्थानों में हो जाता है। मनुस्मृति और याज्ञवल्क्य स्मृति के अनुसार शास्त्रोक्त कर्म न करने पर, शास्त्र-निषिद्ध हिंसा आदि निंदित कर्म करने पर तथा इंद्रियों में अत्यन्त आसक्त होने पर व्यक्ति प्रायश्चित्त का भागी बनता है। गौतमधर्मसूत्र में प्रायश्चित्त करने के निम्न निमित्त बताए गए हैं-अयोग्य व्यक्तियों के लिए यज्ञ करने पर, लहसुन आदि अभक्ष्य पदार्थ खाने पर, असत्य या अश्लील भाषण करने पर, विहित सन्ध्योपासन आदि कर्म न करने पर तथा हिंसा आदि निषिद्ध कर्म करने पर। इन स्थानों में भी कुछ ब्रह्मवादी मानते हैं कि प्रायश्चित्त करने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि पृथ्वी के अंदर बोया बीज फलित होता है तथा भूमि में रखी गई निधि समाप्त नहीं होती, वैसे ही पापकर्म कम नहीं होते लेकिन कुछ मानते हैं कि प्रायश्चित्त करना चाहिए। प्रायश्चित्त-प्राप्ति के प्रकार पंचकल्पभाष्य में प्रायश्चित्त-प्राप्ति के आधार पर उसके दो भेद किए हैं औधिक और नैश्चयिक। स्वस्थान से जो प्रायश्चित्त दिया जाता है, वह औधिक प्रायश्चित्त है, जैसे-मारक प्रहार करने पर 1. व्यभा 401 मटी प. 79; असमाहीठाणा खलु, सबला य परीसहा य मोहम्मि। पलितोवम-सागरोवम, परमाणु ततो असंखेज्जा।। 2. तवा 9/22 पृ.६२२। 3. मनु 11/44; अकुर्वन्विहितं कर्म, निंदितं च समाचरन्। प्रसक्तश्चेन्द्रियार्थेषु, प्रायश्चित्तीयते नरः।। 4. याज्ञ 3/219 विहितस्याननुष्ठानान्निंदितस्य च सेवनात्। अनिग्रहाच्चेन्द्रियाणां, नरः पतनमृच्छति।। 5. गौतम 9/1/2 पृ. 198 / 6. गौतम 9/1/3-6 पृ. 199, 200; तत्र प्रायश्चित्तं कुर्यान्न कुर्यादिति मीमांसान्ते न कुर्यादित्याहुः। न हि कर्म क्षीयते। कुर्यादित्यपरम्।।