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________________ व्यवहार और प्रायश्चित्त : एक विमर्श 55 3. सर्षप-एरण्ड मण्डप पर सरसों के दाने डाले गए। उनको नहीं हटाने से भार से आक्रान्त होकर वह मण्डप भग्न हो गया। 4. वस्त्र-साफ वस्त्र पर कर्दम बिंदु लगने पर उसे धोया नहीं गया। निरन्तर कर्दम बिंदु लगते रहने से एक दिन वह वस्त्र अत्यन्त मलिन होने से त्याज्य हो गया। ___ इन सब उदाहरणों की भांति जो दोष को अल्प समझकर प्रायश्चित्त नहीं लेता, उसका पूरा चारित्र नष्ट हो जाता है। स्मृतिकार के अनुसार जो व्यक्ति पापकर्म में लिप्त रहकर प्रायश्चित्त नहीं करते, वे अत्यन्त भयंकर और कष्टमय नरकों में जाते हैं। वशिष्ठ स्मृति के अनुसार प्रायश्चित्त करने वालों का इहलोक और परलोक-दोनों सुखद हो जाते हैं। भविष्यत् पुराण आदि ग्रंथों में भी प्रायश्चित्त की महत्ता पर बहुत कुछ लिखा गया है। ___यदि आचार्य दोष सेवन करने पर प्रायश्चित्त न दें तो संघ में अनवस्था दोष का प्रसंग आ जाता है। इस प्रसंग में भाष्यकार ने तिलहारक का दृष्टान्त प्रस्तुत किया है। एक बालक अपने गीले शरीर से तिल के देर में घुस गया। उसके पूरे शरीर में तिल चिपक गए। मां ने उसे कुछ नहीं कहा। धीरे-धीरे वह चोरी करने में दक्ष हो गया। एक बार वह पकड़ा गया। राजपुरुषों ने उसकी मां के भी स्तन काट लिए क्योंकि वह मां के निवारित न करने पर चोर बना था। दूसरा बालक भी अपने शरीर के साथ तिल लेकर आया। उसकी मां ने उसे डांटा और तिल वापस ढेर में डाल दिए। बालक चोरी की आदत से बच गया और मां को भी स्तन'छेद का कष्ट सहन नहीं करना पड़ा। इसी प्रकार आचार्य यदि प्रायश्चित्त दे देते हैं तो दोष का निवारण हो ' जाता है तथा अन्य शिष्य भी सावधान हो जाते हैं, अन्यथा दोषों की परम्परा चलती रहती है।' ...जैन परम्परा के अनुसार अपराध चाहें जानबूझकर किया जाए या अज्ञानवश, उसका गुरु के समक्ष प्रायश्चित्त करना आवश्यक है लेकिन स्मृति-साहित्य में इस संदर्भ में दो परम्पराएं मिलती हैं। एक परम्परा के अनुसार ज्ञात या अज्ञात अवस्था में किए गए पाप का प्रायश्चित्त करना चाहिए। दूसरी परम्परा के अनुसार केवल अजानकारी में हुए पापों का ही प्रायश्चित्त संभव है, जानबूझकर किए गए पाप का प्रायश्चित्त संभव नहीं है। प्रायश्चित्त के स्थान जितने स्खलना के स्थान हैं, उतने ही प्रायश्चित्त के स्थान हो सकते हैं। भाष्यकार के अनुसार बीस असमाधिस्थान, इक्कीस शबल दोष, बावीस परीषह और तीस मोहनीयस्थान-इन सब असंयम-स्थानों १.व्यभा 555 मटी प. 32, निभा 6601 चू पृ. 374 / 3. याज्ञ 3/221 // 3. वशि 1/1-2 / 4. जीभा 308, 309, व्यभा 4209, 4210 /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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