________________ अनुवाद-जी-७१ 475 2058. जिनकल्प, स्थविरकल्प, यथालंद, पारिहारिक और आर्यिका-इन पांचों के मासकल्प में क्षेत्र, काल, उपाश्रय और पिण्डग्रहण में नानात्व होता है। 2059. इन पांचों का आपस में क्षेत्र आदि चार पदों से क्या विशेष होता है, उसको मैं संक्षेप में कहूंगा। 2060. जिनकल्पिक के ऋतुबद्ध काल में नियमतः मासकल्प होता है। उनके क्षेत्र सम्बन्धी अवग्रह नहीं होता। वर्षाकाल में वे चार मास तक एक स्थान पर रहते हैं, उनका वसति के प्रति ममत्व नहीं होता और वे उसका परिकर्म भी नहीं करते। 2061. जिनकल्पिक सात पिण्डैषणाओं में से अंतिम पांच एषणाओं से किसी एक एषणा से अलेपकृद् आहार ग्रहण करते हैं। उसमें भी उनकी एषणा अभिग्रह युक्त होती है। 2062. स्थविरकल्पी के नगर या वसति में क्षेत्र का अवग्रह कोश सहित एक योजन होता है तथा ऋतुबद्ध काल में एक मास का अवग्रह होता है। 2063. यह उत्सर्ग-विधि कही गई है। अपवाद स्थिति में अधिक भी हो सकता है। इसी प्रकार वर्षाकाल में भी चातुर्मास या अपवाद की स्थिति में अधिक काल का प्रवास हो सकता है। 2064. उपाश्रय के प्रति अममत्व और अपरिकर्म होता है। अममत्व और अपरिकर्म की दृष्टि से उपाश्रय सम्बन्धी चतुर्भंगी होती है। उत्सर्ग स्थिति में प्रथम भंग का पालन होता है। आपवादिक स्थिति में ममत्व और परिकर्म सम्बन्धी तीनों भंग हो सकते हैं। 2065. लेपकृद् या अलेपकृद् आहार सात प्रकार की एषणाओं से ग्रहण करते हैं क्योंकि गच्छवास सापेक्ष होता है। 2066. गच्छ से अप्रतिबद्ध यथालंदिक साधुओं की चर्या जिनकल्पिक की भांति होती है। केवल काल सम्बन्धी अन्तर है। ऋतुबद्ध काल में वे एक स्थान पर पांच दिन तथा वर्षाकाल में चार मास रहते हैं। १.जिनकल्पिक का मासकल्प स्थविरकल्पी की भांति दो प्रकार का होता है-अस्थितकल्प और स्थितकल्प। मध्यम ' तीर्थंकरों के जिनकल्पिकों का मासकल्प अस्थित होता है तथा प्रथम और अंतिम तीर्थंकर के जिनकल्पिकों का स्थितकल्प होता है। प्रथम और अंतिम तीर्थंकर के साधु नियम से मासकल्प से विहार करते हैं, मध्यम तीर्थंकरों के साधु कभी मासकल्प पूरा किए बिना भी विहार कर देते हैं और कभी देशोनपूर्वकोटि वर्ष तक भी एक स्थान पर रह सकते हैं। 1. बृभा 6431 टी. पृ. 1694 / 2. उपाश्रय सम्बन्धी चतुर्भंगी-१. अममत्व-अपरिकर्म, 2. अममत्व-परिकर्म, 3. ममत्व-अपरिकर्म, 4. ममत्व परिकर्म। ३.लंद शब्द काल का वाचक है। जितने काल में जल से आई हाथ सूखता है, उतने काल भी जो प्रमाद नहीं करते, वे साधु यथालंदिक होते हैं। ऋतुबद्ध काल में ये पांच अहोरात्र तक एक ही वीथी में रहते हैं और वहीं भिक्षाचर्या करते हैं। इस काल का अतिक्रमण नहीं करते। ये दो प्रकार के होते हैं -गच्छ प्रतिबद्ध और गच्छ अप्रतिबद्ध। जो प्रस्तुत कल्प की समाप्ति के बाद जिनकल्प स्वीकार करते हैं, वे जिन तथा जो गच्छ में पुनः स्थविरकल्प को स्वीकार कर लेते हैं, वे स्थविरकल्पी कहलाते हैं। इनके जघन्य तीन गण तथा उत्कृष्ट शतपृथक्त्व (दो सौ से नौ ' सौ) गण एक साथ इस कल्प को स्वीकार कर सकते हैं। पुरुष प्रमाण की अपेक्षा जघन्य 15 पुरुष तथा उत्कृष्ट शतपृथक्त्व (दो हजार से नौ हजार) व्यक्ति इस कल्प को स्वीकार करते हैं।