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________________ -- 476 जीतकल्प सभाष्य' 2067. गच्छ से प्रतिबद्ध यथालंदिकों की यह विशेषता है कि उनका जो अवग्रह होता है, वह आचार्यों के अधीन होता है। 2068. गांव को छह वीथियों में बांटकर प्रत्येक वीथी में पांच-पांच दिन तक भिक्षा करते हैं फिर अन्य वीथियों में नियमतः पांच-पांच दिन भिक्षार्थ परिव्रजन करते हैं। 2069. परिहारविशुद्धि कल्प वाले के जिनकल्पिक जैसा ही आचार होता है। अंतर इतना ही है कि . परिहारविशुद्धि वाले आयम्बिल करते हैं। अब स्थविरकल्प ज्ञातव्य है। 2070. आर्यिकाओं का अवग्रह आचार्य के अधीन होता है। उनका ऋतुबद्ध काल में एक स्थान पर दो मास रहने का कल्प होता है। 2071. शेष पिण्ड, उपाश्रय आदि का वर्णन स्थविरकल्प के समान होता है। सारा कल्प दो प्रकार का हैजिनकल्प और स्थविरकल्प। 2072. जिनकल्पिक, यथालंदिक और परिहारविशुद्धिक के जिनकल्प होता है। स्थविर और आर्यिकाओं का स्थविरकल्प जानना चाहिए। 2073. मासकल्प दो प्रकार का होता है जिनकल्प और स्थविरकल्प। जिनकल्प अनुग्रह रहित तथा स्थविरकल्प अनुग्रह युक्त होता है। 2074. ऋतुबद्धकाल और वर्षावास पूर्ण होने के पश्चात् जिनकल्पी को अधिक दिन रहने पर ऋतुबद्ध काल के प्रत्येक दिन के लिए गुरुमास तथा वर्षाकाल का चतुर्गुरु प्रायश्चित्त प्राप्त होता है तथा स्थविरकल्पी को ऋतुबद्ध काल के प्रत्येक दिन के लिए लघुमास तथा चातुर्मास काल बीतने पर प्रत्येक दिन के लिए चतुर्लघु प्रायश्चित्त की प्राप्ति होती है। 2075. वर्षावास के प्रमाण से अधिक रहने वाला तीस अपराध-पदों से स्पृष्ट होने पर जिस अपराधपद का सेवन करता है, वह उसी अपराध से स्पृष्ट होता है। 2076. पन्द्रह उद्गम-दोष, दश एषणा के दोष-ये पच्चीस दोष होते हैं। संयोजना आदि पांच दोषों को मिलाने से आहार से सम्बन्धित तीस अपराध-पद होते हैं। 2077. इन दोषों की प्राप्ति न होने पर भी कालातिक्रान्त प्रवास करने पर प्रतिदिन का वही प्रायश्चित्त प्राप्त होता है, जो पहले कहा गया है। (देखें गाथा 2074 का अनुवाद) 2078. वर्षावास प्रमाण तथा ऋतुबद्धकाल में जितना रहने का कल्प है, उतना रहने के बाद भी उस स्थान को नहीं छोड़ना अनुवासकल्प कहलाता है। 2079. वर्षावास का प्रमाण आचारप्रकल्प (निशीथ) में जैसा कहा गया है, वहां रहने पर भी अनुवासकल्प होता है। वहां रहते हुए दोष होते हैं। १.निरनुग्रह का तात्पर्य है कि उनके अशिव आदि कारणों के होने पर अपवाद नहीं होता। स्थविरकल्पी के अशिव आदि कारणों का अपवाद होता है अतः वह सानुग्रह है। २.पंचकल्प चूर्णि में तीस अपराध पद की दो रूपों में व्याख्या की गई है। प्रथम व्याख्या भिक्षा के दोष से सम्बन्धित है। पन्द्रह उद्गम दोष, दस एषणा के दोष तथा पांच संयोजना के दोष-ये तीस अपराधपद हैं। दूसरी व्याख्या के अनुसार मास में तीस दिन होते हैं। कल्प से अधिक यतनापूर्वक रहने पर भी प्रत्येक दिन का प्रायश्चित्त प्राप्त होता है।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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