________________ अनुवाद-जी-७१ 477 2080. विहारकाल के दो प्रकार हैं-वर्षावासकाल और ऋतुबद्धकाल। ऋतुबद्ध मासकल्प बीतने पर उपधि ग्रहण नहीं होती, वर्षावास बीतने पर उपधि-ग्रहण संभव है। 2081. ऋतुबद्ध काल के आठ मास व्यतीत होने पर वहां प्रवास कल्प्य नहीं होता, वर्षावास बीतने पर उपधि ग्रहण करके विहार कल्प्य होता है। 2082. वर्षाकाल और ऋतुबद्ध काल में इत्वरिक और साधारण अवग्रह पृथक्-पृथक् होता है। द्रव्यों के संक्रमण हेतु गच्छ में अवग्रह होता है। 2083. वर्षावास में चार मास और ऋतुबद्ध काल में एक-एक मास का कालावग्रह होता है। यथालंदिक का ऋतुबद्ध काल में एक स्थान पर पांच दिन का कालावग्रह होता है। विश्राम के लिए वृक्ष के नीचे स्थित मुनियों का इत्वरिक अवग्रह होता है। 2084. अनेक गच्छों के एक साथ रहने पर क्षेत्रावग्रह साधारण अर्थात् सबका होता है। एक के ग्रहण करने पर वह सबके लिए गृहीत हो जाता है। 2085. साधु परस्पर सूत्र, अर्थ और तदुभय का अध्ययन करते हैं अथवा प्रतिपृच्छा करते हैं तो उनके अवग्रह का परस्पर संक्रमण होता है। 1. वर्षाकाल में उपधि का ग्रहण भगवान् के द्वारा अनुज्ञात नहीं है। उस काल में उपधि ग्रहण करने से अदत्तादान विरमण का व्रत भंग होता है तथा चतुर्गुरु प्रायश्चित्त प्राप्त होता है। (निभा 335) 2. सर्वसाधारण क्षेत्र में जो साधु सूत्र या अर्थ का कथन करता है, वह क्षेत्र उसके अधिकार में होता है। यदि बारी बारी से कथन किया जाता है तो जो जितने दिन, पौरुषी या मुहूर्त श्रुत-वाचना देता है, उतने काल तक उसका .. अवग्रह रहता है। 3. 'अन्योन्य संक्रमण' शब्द की पंचकल्प चूर्णिकार ने विस्तार से व्याख्या की है। एक साधु दूसरे साधु के पास दशवैकालिक का अध्ययन करता है। उस दशवैकालिक पढ़ने वाले के पास कोई अन्य साधु उत्तराध्ययन पढ़ता है। उत्तराध्ययन पढ़ने वाला साधु सचित्त आदि जो कुछ प्राप्त करता है, वह दशवैकालिक पढ़ने वाले को देता है। जो साधु उत्तराध्ययन पढ़ता है, उसके पास अन्य साधु ब्रह्मचर्य (आचारांग) यावत् विपाकश्रुत तक का अध्ययन करते हैं। इसमें क्रमशः उत्तर उत्तर बलशाली हैं अर्थात् उत्तराध्ययन की अपेक्षा ब्रह्मचर्य (आचारांग) अधिक बलीयान् है। अर्थ की दृष्टि से एक साध दसरे के पास आवश्यक की गाथाएं पढता है.अन्य साध आवश्यक का अर्थ कहता है, इसमें अर्थ कराने वाला बलिक है। एक साधु दशवैकालिक सूत्र का वाचन करता है, दूसरा उसका अर्थ कराता है, इसमें अर्थकर्ता बलिक है। इसी प्रकार विपाकश्रुत तक जानना चाहिए। अर्थ की बलवत्ता को स्पष्ट करते हुए चूर्णिकार कहते हैं कि एक साधु भगवती की वाचना देता है, दूसरा दशवैकालिक आदि यावत् कल्प और व्यवहार का अर्थ कहता है तो इसमें अर्थकर्ता बलिक है। - एक साधु कल्प और व्यवहार का अर्थ करता है, दूसरा दृष्टिवाद सूत्र की वाचना देता है। इसमें सूत्रकर्ता अर्थात् दृष्टिवाद की वाचना देने वाला बलिक है। पूर्वगत सर्वत्र बलिक होता है। जहां स्वाध्याय-मण्डली छिन्न होती है तो वह क्षेत्र और सचित्त आदि की प्राप्ति अधस्तन वाले को प्राप्त होती है। घोटककण्डूयित मंडली में जो जब जिसको पूछता है, तब वह उसका प्रतीच्छक होता है तथा जो उत्तर देता है, तब वह क्षेत्र उसके अधीन होता है। क्षेत्र आभवद् के सम्बन्ध में व्यवहारभाष्य में विस्तार से उल्लेख है। १.पंकभा चू पृ. 367 /