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________________ 478 जीतकल्प सभाष्य 2086, 2087. साधु मंडली और आवलिका में श्रुत ग्रहण करते हैं। मंडली में अध्ययन करते हुए क्षेत्रगत सचित्त आदि वस्तुओं का जो लाभ होता है, वह परम्परा से स्वस्थान तक संक्रान्त होता है। जहां तक आवलिका होती है, अंत में वहां तक परम्परा चलती है। 2088. वे साधु एक वसति में अथवा पुष्पावकीर्ण-अलग-अलग वसतियों में रहते हैं, तब द्रव्य के . संक्रमण की यह अन्य विधि है। 2089. सूत्र, अर्थ और तदुभय विशारद आचार्य के पास स्थान की कमी होने पर साधुओं के दो स्थानों में विभक्त होने पर अन्य गांव में गए साधुओं के द्रव्य का संक्रमण योग (आगाढ़-अनागाढ़) कल्प और आवलिका पूर्ववत् होती है। 2090, 2091. पूर्वस्थित आचार्य के क्षेत्र में यदि अन्य बहुश्रुत या बहुत आगमों का ज्ञाता आचार्य आ. जाए और वह क्षेत्रवर्ती आचार्य उनके पास कुछ अध्ययन करे, वहां यदि क्षेत्र अल्प हो तो असंथरण की स्थिति में दोनों अपने-अपने साधुओं का वर्जन करते हैं। १.सूत्र-अर्थ संभाषण के तीन प्रकार हैं -मंडलिका-जो मंडली एकान्त अच्छिन्न प्रदेश में होती है। आवलिका जो अपने ही स्थान में छिन्न प्रदेश में होती है। आवलिका में उपाध्याय अंतर विविक्त प्रदेश में बैठता है, जबकि मंडलिका में वह स्वस्थान पर बैठता है। सूत्र अर्थ-संभाषण का तीसरा प्रकार है-घोटक कण्डूयित। जिस प्रकार घोड़े आपस में खुजली करते हैं, वैसे ही जिस मंडली में साधु बारम्बार परस्पर सूत्र और अर्थ का ग्रहण करते हैं। जैसे-आज मैं तुम्हारे पास पढूंगा, कल तुम मेरे पास पढ़ना। मंडली-विधि का उपक्रम करने के निम्न कारण हैं• पूर्व अधीत विस्मृत श्रुत का पुनः स्मरण करने के लिए। * धर्मकथा तथा वादशास्त्रों के स्मरण-अध्ययन के लिए। * अध्ययन हेतु। 1. व्यभा 1831, 1832 मटी प. 21 / २.व्यवहारभाष्य में तीन प्रकार के उपाश्रयों का उल्लेख मिलता है-१. पुष्पावकीर्ण 2. मण्डलिकाबद्ध और 3. आवलिकास्थित। टीकाकार ने इन तीनों उपाश्रयों की व्याख्या नहीं की है। इनकी अर्थ-परम्परा यह होनी चाहिए१. पुष्पावकीर्ण-अलग-अलग बिखरी हुई वसतियां 2. मंडलिबद्ध-अच्छिन्न प्रदेश में स्थित 3. आवलिकाएकान्त छिन्न प्रदेश में स्थित। १.व्यभा 1806 ; पुष्फावकिण्ण मंडलियावलिय उवस्सया भवे तिविधा। ३.यह द्वारगाथा है। यह पंचकल्पभाष्य में भी मिलती है। चूर्णिकार इस गाथा की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि एक सूत्रार्थविशारद आचार्य पहले से ही किसी गांव में प्रवास कर रहे हों, वहां अन्य साधु उनके पास अध्ययन हेतु आ जाएं, उस समय यदि स्थान का अभाव हो अथवा भक्तपान अपर्याप्त हो तो दो पढ़ने वाले साधुओं को छोड़कर शेष को अन्य स्थान में भेज दिया जाता है। अन्य क्षेत्र में गए साधुओं के वहां आपस में पढ़ते हुए साधुओं के संक्रमण-स्थान आदि पूर्ववत् होते हैं।' १.पंकचू पृ. 367 / ४.व्यवहारभाष्य के अनुसार जहां सब अगीतार्थ हों, वहां यदि कोई गीतार्थ आ जाए तो उसकी उपसम्पदा स्वीकार न करने पर गुरु प्रायश्चित्त आता है।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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