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________________ अनुवाद-जी-७१ 479 2092. एक दूसरे के पास वहां अध्ययन करते हुए मुनि के आभवद् व्यवहार वैसे ही होता है, जैसे सूत्र (व्यवहार भाष्य') में कहा गया है। 2093. इस प्रकार व्याघात न होने पर स्थविरकल्पी का ऋतुबद्धकाल में एक मास तथा वर्षाकाल में चार मास का एक स्थान पर प्रवास होता है लेकिन कारण होने पर जब तक वह कारण उपस्थित रहे, तब तक अनुवास-कल्प से अधिक प्रवास किया जा सकता है। 2094. यह स्थविरकल्पिक का मासकल्प संक्षेप में वर्णित है, अब स्थितकल्प और अस्थितकल्प स्थविरों के बारे में कहूंगा। 2095. वह स्थविरकल्प दो प्रकार का होता है-अस्थितकल्प और स्थितकल्प। इसी प्रकार जिनकल्पी के भी स्थितकल्प और अस्थितकल्प-ये दो भेद होते हैं। 2096. पर्युषणाकल्प स्थविरकल्पिक एवं जिनकल्पिक दोनों के होता है तथा दोनों के यह स्थित और अस्थित-दोनों प्रकार का होता है। 2097. पर्युषणाकल्प उत्कृष्टतः चार मास का (आषाढ़ी पूर्णिमा से कार्तिक पूर्णिमा) और जघन्य सत्तर रात-दिन (भाद्रव शुक्ला 5 से कार्तिक पूर्णिमा) तक होता है। यह स्थितकल्प (प्रथम और चरम तीर्थंकर के साधु) के लिए होता है। शेष तीर्थंकरों के अस्थितकल्प होता है। स्थितकल्प के लिए अशिव आदि कोई कारण उत्पन्न होने पर मासकल्प एवं पर्युषणाकल्प में विपर्यास भी हो सकता है। 2098. प्रथम और अंतिम तीर्थंकरों के स्थितकल्प वाले स्थविरकल्पी साधुओं के वर्षाकाल में सत्तर दिन का पर्युषणाकल्प होता है। उनके ऋतुबद्धकाल में एक मास का स्थितकल्प होता है। अशिव आदि कारण उपस्थित होने पर विपर्यास-हीन या अधिक भी होता है। जिनकल्पिक साधुओं के नियमतः ऋतुबद्धकाल में आठ मास तथा वर्षाकाल में चार मास होते हैं।२ / .2099. जो मध्यम तीर्थंकरों के अस्थितकल्पिक साधु हैं, वे दोषों के अभाव में पूर्वकोटि वर्ष तक भी एक क्षेत्र में रहते हैं। यदि कर्दमरहित और प्राणरहित भूमि हो तो वे वर्षाकाल में भी विहार कर सकते हैं। 2100. मध्यम तीर्थंकरों के साधु थोड़ा कारण होने पर भी मासकल्प पूरा किए बिना विहार कर देते हैं। मध्यम तीर्थंकरों के जिनकल्पिक साधु और महाविदेह क्षेत्र के स्थविरकल्पी और जिनकल्पी साधु अस्थित कल्प वाले होते हैं। 2101. इस प्रकार स्थितकल्प और अस्थितकल्प सम्बन्धी जो मर्यादा कही गई है, उसमें जो प्रमाद करता है, वह पार्श्वस्थ स्थान में होता है। साधु को उस स्थान का विवर्जन करना चाहिए। 2102. जिनेश्वर भगवान् ने तथा स्थविरों ने पार्श्वस्थ के स्थान को संक्लिष्ट कहा है। वैसे स्थान की गवेषणा करने वाला मुनि विहारचर्या में विशुद्ध नहीं होता। १.व्यभा 1824-37 / २.जिनकल्पिक साधु के ऋतुबद्धकाल और चातुर्मास निरपवाद होता है।
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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