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________________ 480 जीतकल्प सभाष्य 2103. जिनेश्वर तथा स्थविरों ने पार्श्वस्थ के स्थान को संक्लिष्ट कहा है। वैसे स्थान का विवर्जन करने - वाला मुनि विहारचर्या में विशुद्ध होता है। 2104. जो इस कल्पस्थिति पर श्रद्धा रखता हुआ स्वस्थान' में उसका पालन करता है, वैसे संविग्नविहारी मुनि की गवेषणा करनी चाहिए, जिससे गुणों की हानि न हो। 2105. जो दसविध स्थितकल्प, द्विविध स्थापना कल्प तथा उत्तरगुणकल्प में समान आचार वाला होता है, उसके साथ संभोज करना चाहिए। 2106. स्थापनाकल्प दो प्रकार का होता है-अकल्पस्थापनाकल्प तथा शैक्षस्थापनाकल्प। अकल्पिक अर्थात् जिसने पिण्डैषणा न पढ़ा हो, उससे आहार आदि ग्रहण नहीं करना चाहिए। 2107. अठारह प्रकार के पुरुष, बीस प्रकार की स्त्रियां तथा दस प्रकार के नपुंसक-इनको दीक्षा नहीं देना शैक्षस्थापनाकल्प.कहलाता है। 2108. जो आहार, उपधि और शय्या को उद्गम, उत्पादना और एषणा के दोषों से शुद्ध ग्रहण करता है, वह उत्तरगुणकल्पिक कहलाता है। 2109. सदृश आचार वाला, सदृश सामाचारी वाला, समान चारित्र वाला अथवा विशिष्ट संयमस्थानों में वर्तमान-इन गुणों से युक्त ज्ञानी और चारित्रगुप्त साधु के साथ संस्तव आदि करना चाहिए। 2110. सदृशकल्प', सदृश सामाचारी, समान चारित्र वाला तथा विशिष्टतर संयमस्थानों में वर्तमान-इन गुणों से युक्त साधु से भक्तपान ग्रहण करना चाहिए अथवा अपने लाभ में संतुष्ट रहना चाहिए। 2111. सामायिक, छेदोपस्थापनीय, जिनकल्प और स्थविरकल्प की स्थिति का वर्णन किया। अब मैं निर्विशमानक और निर्विष्टकायिक कल्पस्थिति का वर्णन करूंगा। 2112. मैं परिहारकल्प के विषय में कहूंगा, जिसका विद्वान् मुनि आसेवन करते हैं। मैं उसकी आदि, मध्य और अवसान में होने वाली सामाचारी की परिपाटी का यथाक्रम से वर्णन करूंगा। 2113. भरत और ऐरवत क्षेत्रों में जब तीर्थंकर होते हैं तो प्रथम और अंतिम तीर्थंकरों के शासनकाल में पारिहारिक होते हैं। 1. स्वस्थान का तात्पर्य है कि स्थितकल्प का अनुवर्तन करते हुए स्थितकल्प की सामाचारी को तथा अस्थित कल्प में रहते हुए अस्थित कल्प की सामाचारी को करना।। १.बृभा 6440 टी पृ.१६९६; स्वस्थानं नाम स्थितकल्पेऽनुवर्तमाने स्थितकल्पसामाचारीम् ,अस्थितकल्पे पुनरस्थित कल्पसामाचारी करोति। 2. निशीथ भाष्य में संभोज-विधि के छह भेद बताए गए हैं-१. ओघ, 2. अभिग्रह, 3. दान-ग्रहण, 4. अनुपालना, 5. उपपात, 6. संवास। 1. निभा 2070 / 3. उद्गम आदि दोषों से रहित भिक्षाग्रहण, समिति, गुप्ति आदि शीलांग, क्षमा आदि श्रमणधर्म-इन उत्तर गुणों का समान रूप से पालन करने वाला सदृशकल्पी होता है अथवा जो संविग्न और सांभोजिक होता है, वह सदृश कल्पी है। 1. निभा 5935, 5936 /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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