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________________ 474 जीतकल्प सभाष्य 2043. जो मुनि परवश होकर षड्जीवनिकाय की विराधना करता है, वह गुरु के पास आलोचना करके प्रायश्चित्त लेकर शुद्ध हो जाता है। 2044. जो मुनि आत्मवश होकर षड्जीवनिकाय की विराधना करता है तो गुरु के पास आलोचना और प्रतिक्रमण करने पर भी उसकी मूलतः उपस्थापना करवानी चाहिए। 2045. क्षेत्र आदि से परवश होकर जो अजानकारी में मिथ्यात्व को प्राप्त होता है, उसको कोई प्रायश्चित्त प्राप्त नहीं होता, उसको प्रायश्चित्त देने वाला विराधक होता है। 2046. जिसने जो प्रायश्चित्त प्राप्त किया है तथा जिस व्यक्ति के प्रायोग्य जो प्रायश्चित्त हो, उसे वही प्रायश्चित्त देना चाहिए। असदृश अर्थात् विपरीत प्रायश्चित्त देने पर ये दोष होते हैं२०४७. अप्रायश्चित्ती को प्रायश्चित्त देने से तथा प्रायश्चित्त प्राप्त करने वाले को अतिमात्रा में प्रायश्चित्त देने से धर्म की तीव्र आशातना तथा मोक्षमार्ग की विराधना होती है। 2048. उत्सूत्र से व्यवहार करता हुआ अर्थात् सूत्र से अतिरिक्त प्रायश्चित्त देता हुआ आचार्य चिकने कर्मों का बंधन करता है। वह संसार को बढ़ाता है तथा मोहनीय कर्म का बंध करता है। 2049. उन्मार्ग की देशना देने वाला मार्ग को दूषित करता है तथा मार्ग की विप्रतिपत्ति से वह दूसरों को मोह से रंजित करता हुआ महामोह का बंधन करता है। 2050. इस प्रकार जो पहले उपस्थापित होता है अथवा सामायिक को पहले स्वीकार करता है, वह कल्प और आचार-प्रकल्प धारण करने वालों में ज्येष्ठ होता है। 2051. प्रथम और अंतिम तीर्थंकर का प्रतिक्रमणयुक्त धर्म होता है। मध्यम तीर्थंकरों के तीर्थ में कारण उत्पन्न होने पर प्रतिक्रमण होता है। 2052. प्रथम और अंतिम तीर्थंकर के साधु गमनागमन तथा विचारभूमि में जाते हुए वहां लगने वाले अतिचार के लिए नियमतः सुबह और शाम प्रतिक्रमण करते हैं फिर चाहें अतिचार लगें या न लगें। 2053. शिष्य जिज्ञासा करता है कि अतिचार न होने पर प्रतिक्रमण निरर्थक होता है। आचार्य उत्तर देते हुए कहते हैं कि वत्स! (अतिचार न होने पर भी प्रतिक्रमण करना निरर्थक नहीं होता,) उसकी सार्थकता में यह उदाहरण है। 2054-56. जैसे कोई राजा अपने पुत्र के लिए रसायन करवाता है, वहां एक चिकित्सक कहता है कि मेरा रसायन ऐसा है कि यदि दोष होगा तो वह दोष का नाश करेगा यदि दोष नहीं होगा तो रोग हो जाएगा। दूसरा वैद्य कहता है -'मेरी औषधि रोग का हरण करेगी लेकिन रोग के अभाव में गुण और दोष कुछ भी नहीं करेगी।' तीसरा वैद्य बोला-'मेरी औषधि दोषरहित होने के कारण दोष का नाश करके गुण ही करेगी।' तृतीय वैद्य की औषधि समाधिकारक होने से राजपुत्र के लिए रसायन है। 2057. प्रतिक्रमण तीसरे कुशल चिकित्सक के रसायन के समान है। यदि दोष होता है तो उसका नाश कर देता है, यदि दोष नहीं होता तो निर्जरा करता है। १.कथा के विस्तार हेतु देखें परि. 2, कथा सं.५५ /
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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