________________ अनुवाद-जी-७१ 473 . 7. जिसने सम्पूर्ण दर्शन-सम्यक्त्व को वान्त कर दिया हो। 8. जिसने सम्पूर्ण चारित्र को वान्त कर दिया हो। 9. त्यक्तकृत्य-संयम को त्यक्त कर षड्जीवनिकाय का समारंभ करने वाला। 10. शैक्ष–अभिनव दीक्षित। 2030, 2031. ये दश प्रकार की उपस्थापनाएं प्रथम और अंतिम तीर्थंकरों के द्वारा कही गई हैं। अन्य आदेश से छह प्रकार की उपस्थापनाएं इस प्रकार हैं-प्रथम में तीनों पारांचिक, द्वितीय में तीनों अनवस्थाप्य, तृतीय दर्शनवान्त, चौथा चारित्रवान्त, पांचवां त्यक्तकृत्य तथा छठा शैक्ष, जिसकी उपस्थापना बाकी है। 2032. यह दूसरा आदेश है। तृतीय आदेश निम्न प्रकार से जानना चाहिए। उसके चार उपस्थाप्य होते हैं, वे कौन से हैं? आचार्य कहते हैं कि वे ये जानने चाहिए२०३३, 2034. श्रुतोपदिष्ट अनवस्थाप्य और पाराञ्चिक का दर्शन और चारित्र में अन्तर्भाव हो जाने से दर्शनवान्त और चारित्रवान्त-ये दो भंग होते हैं। त्यक्तकृत्य (षट्कायविराधक) और शैक्ष-ये चार उपस्थाप्य होते हैं। उपस्थापना के ये तीन आदेश जानने चाहिए। 2035. दर्शन और चारित्र के साथ केवल पद का ग्रहण सम्पूर्ण अर्थ में है। यदि दर्शन और चारित्र का पूर्णतः वमन होता है तो उसकी उपस्थापना (छेदोपस्थापनीय चारित्र) होती है। देशतः वमन होने पर उपस्थापना की भजना रहती है अर्थात् कदाचित् उपस्थापना हो भी सकती है और नहीं भी होती। 2036. इसी प्रकार कोई अगीतार्थ मुनि अल्पदोष के कारण सूत्रार्थ विषयक किसी श्रुत या अश्रुत पद को अन्यथा रूप में कहता है, उस समय गुरु के प्रेरित करने पर वह यदि उसे सम्यक् रूप से स्वीकार कर लेता है तो मिथ्या दुष्कृत मात्र से शुद्ध हो जाता है। 2037-40. दर्शनवान्त दो प्रकार का होता है-१. जानकारी में सम्यक्त्व का वमन करने वाला 2. अजानकारी में वमन करने वाला। अनाभोग दर्शनवान्त का तात्पर्य है कि कोई श्रावक निह्नव को देखता है कि ये यथोक्त क्रिया करने वाले हैं, ऐसा सोचकर संवेग से उनके पास दीक्षित हो जाता है। अन्य साधु उसे वहां दीक्षित देखकर कहते हैं कि तुम निह्नवों के पास दीक्षित क्यों हुए हो? वह साधु उत्तर देता है कि भंते ! मैं इस बारे में विशेष कुछ नहीं जानता हूं। इस प्रकार अनाभोग-अजानकारी में मिथ्यात्व को प्राप्त करके यदि वह पुनः सम्यक्त्व प्राप्त करता है तो वह साधु आलोचना और निंदा करने मात्र से शुद्ध हो जाता 2041. वह उसी पर्याय में शुद्ध दर्शनी के पास आ जाता है, उसकी पुनः उपस्थापना नहीं होती। उसका यही प्रायश्चित्त है कि उसने सम्यक्त्व को पुनः स्वीकार कर लिया। 2042. जो जानता हुआ निह्नवों के पास दीक्षित होता है, वह यदि पुनः सम्यक्त्व को प्राप्त करता है तो उसके लिए पुनः उपस्थापना कही गई है।