________________ 472 जीतकल्प सभाष्य - 2022. मिथ्यात्व से भावित, दुर्विदग्ध मति वाले तथा वामशील होने के कारण अंतिम तीर्थंकर के साधुओं के लिए यथार्थ वस्तुतत्त्व का आख्यान करना तथा उपनय आदि देना दःखप्रद होता है। 2023. चरम तीर्थंकर के साधु दुःखों से भर्त्सित होते हैं। शारीरिक बल और मानसिक धृति से दुर्बल होने के कारण परीषहों को सहन करना उनके लिए कठिन होता है। इसी प्रकार चरम तीर्थंकरों के साधुओं के मान की उत्कटता के कारण उन पर अनुशासन करना कठिन होता है। 2024. ये आख्यान आदि स्थान मध्यम तीर्थंकरों के साधुओं के लिए इसलिए सुगम हो जाते हैं क्योंकि वे सुप्राज्ञ और ऋजु होते हैं। वे शरीर-बल और मनोबल से युक्त होने के कारण सुख और दुःख को सहन करने में सक्षम होते हैं तथा विमिश्रभाव होने से उन पर अनुशासन करना भी सुगम होता है। 2025. जिस व्यक्ति पर सामायिक पहले आरोपित किया जाता है अथवा जिसको महाव्रतों में पहले स्थापित किया जाता है, वह कृतिकर्म ज्येष्ठ कहलाता है। साधु जन्म या श्रुत के आधार पर ज्येष्ठ नहीं माना जाता। दोनों पक्षों-संयतपक्ष और संयतीपक्ष में यही व्यवस्था है। 2026. प्रथम और चरम तीर्थंकर के पंचयाम धर्म में स्थित साधुओं की जिन स्थानों में उपस्थापना होती है, उस विषय में तीन आदेश हैं, वे मुझसे सुनो। 2027. दश, छह और चार-ये तीन आदेश होते हैं। दश कौन से होते हैं, उनके बारे में सुनो। 2028, 2029. पहला आदेश-दश स्थान 1-3. तीन पारांचिक-दुष्ट, प्रमत्त और अन्योन्य सेवन करने वाला। .. 4-6. तीन अनवस्थाप्य-साधर्मिक स्तेन, अन्यधार्मिक स्तेन तथा मारक प्रहार करने वाला। १.अंतिम तीर्थंकर के साधु वक्रजड़ होते हैं। वक्र होने के कारण वे दोष का सेवन करके न उसे बताते हैं और न ही उसकी आलोचना करते हैं, यह उनकी जड़ता है। आचार्य उससे पूछते हैं कि तुमने मार्ग में नाटक देखा? तो वक्रजड शिष्य निषेध करता है कि मैंने नहीं देखा। जब गुरु उसे कहते हैं कि तुम वहां क्यों खड़े थे तो वह कहता है कि मैं गर्मी से आहत हो गया था इसलिए खड़ा था अथवा मेरे पैर में कांटा चुभ गया था इसलिए खड़ा था। अंतिम तीर्थंकर के गृहस्थ भी एषणा आदि के विषय में सही उत्तर नहीं देते। वे कहते हैं-'यह भोजन अतिथियों के लिए बनाया है अथवा यह भोजन मुझे रुचिकर है अथवा आज हमारे घर में उत्सव है।" 1. बृभा 5358; वंका उण साहंती, पुट्ठा उ भणंति उण्ह-कंटादी। पाहुणग सद्ध ऊसव, गिहिणो वि य वाउलंतेवं॥ २.मध्यम तीर्थंकरों के साधु ऋजुप्राज्ञ होते हैं। वे जिस दोष का सेवन करते हैं, उसकी आलोचना करते हैं, यह उनकी . ऋजुता है। प्राज्ञ होने के कारण वे तज्जातीय दोषों का वर्जन करते हैं / तत्कालीन गृहस्थ भी एक दोष के आधार पर तज्जातीय शेष सब दोषों का परिहार करते हैं।' १.बुभा५३५७; उज्जुत्तणं सें आलोयणाएँ पण्णा उसेसवज्जणया।सण्णायगा वि दोसे,ण करेंतऽण्णेण यऽण्णेसिं॥ ३.मध्यम बावीस तीर्थंकरों के साधु न एकान्ततः दान्त होते हैं और न उत्कट कषाय युक्त होते हैं, इस कारण वे विमिश्रभाव से युक्त होते हैं। १.बुभाटी प.१६८९; विमिस्सभाव त्ति नैकान्तेनोपशान्ता,नवा उत्कटकषायास्ते।