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________________ अनुवाद-जी-७१ 471 2013. आगाढ़ एवं अनागाढ़ द्विविध ग्लानत्व में राजपिण्ड ग्रहण किया जा सकता है। राजा द्वारा आग्रहपूर्वक निमंत्रण देने पर, द्रव्य की दुर्लभता होने पर, अशिव, दुर्भिक्ष, राजप्रद्वेष तथा तस्कर आदि का भय-इन कारणों से राजपिण्ड का ग्रहण अनुज्ञात है। 2014. अपने क्षेत्र की चारों दिशाओं में एक योजन तक तीन बार गवेषणा करने पर भी यदि दुर्लभ द्रव्य की प्राप्ति न हो तो कृतयोगी मुनि के लिए यतनापूर्वक राजपिण्ड का ग्रहण करना कल्प्य है। 2015. कृतिकर्म दो प्रकार का है-अभ्युत्थान और वंदना। श्रमण और श्रमणियों को यथार्ह दोनों करने चाहिए। 2016. सभी श्रमणियों को साधुओं का कृतिकर्म करना चाहिए क्योंकि सभी तीर्थंकरों के तीर्थ में पुरुषोत्तर धर्म होता है। 2017. साधु के द्वारा वंदित होने पर साध्वियां तुच्छता के कारण गर्वित हो जाती हैं। वह साधु का परिभव करने में भी शंका नहीं करती। स्त्रियों में एक अन्य दोष भी होता है कि वे माधुर्य से ग्राह्य हो जाती हैं। 2018. अथवा जिनधर्म पुरुषों द्वारा प्रणीत है, पुरुष ही इसकी रक्षा करने में समर्थ हैं। पुरुष द्वारा स्त्री को वंदना करना लोकविरुद्ध भी है इसलिए श्रमणियों को चाहिए कि वे श्रमणों को वंदना करें। 2019. प्रथम और अंतिम तीर्थंकर के तीर्थ में पंचयाम धर्म अर्थात् पंच महाव्रत रूप धर्म होता है। मध्यम तीर्थंकरों के तीर्थ में चातुर्याम धर्म होता है। 2020. प्रथम तीर्थंकरों के साधुओं का कल्प दुर्विशोध्य और अंतिम तीर्थंकरों के साधुओं का कल्प दुरनुपाल्य होता है। मध्यम तीर्थंकरों का कल्प सुविशोध्य और सुखपूर्वक पालन करने योग्य होता है। 2021. जड़ता के कारण प्रथम तीर्थंकरों के मुनियों को यथार्थ तत्त्व का आख्यान करना, विभाग करना उपनय अर्थात् हेतु और दृष्टान्तों से समझाना दुःशक्य होता है। काल आदि की स्निग्धता के कारण वे साधु सुखों से युक्त होते हैं अतः परीषह सहना उनके लिए दुष्कर होता है। वे स्वभाव से दान्त और उपशान्त होते हैं अतः शिष्यों पर अनुशासन करना उनके लिए कष्टप्रद होता है। १.प्रथम तीर्थंकर के साधु ऋजुजड़ होते हैं / ऋजुता के कारण वे अपने अतिचारों की आलोचना करते हैं किन्तु मतिजड़ता के कारण तज्जातीय दोषों का वर्जन नहीं कर सकते। यही बात तत्कालीन गृहस्थों की है। उनको जिस रोष कार्य का निषेध किया जाता है, उसका वर्जन करते हैं लेकिन उससे सम्बन्धित अन्य कार्यों का वर्जन नहीं करते। - ऋजुजड़ साधु यदि नाटक देखते हैं तो ऋजुता से आकर गुरु को निवेदन करते हैं। पुनः बहुरूपिए का कौतुक देखने पर गुरु यदि पूछते हैं कि तुमने कौतुक क्यों देखा तो वे कहते हैं कि आपने नाटक का निषेध किया था, कौतुक का नहीं। ऋजुता के कारण जितना निषेध किया जाता है, उतना ही वर्जन करते हैं। सर्व नाटक का निषेध करने पर समग्रता से उसका वर्जन करते हैं। १.बृभा५३५६ उजुत्तणं सें आलोयणाएँ जहुतणं सें जं भुण्जो।तजातिएणयाणति, गिही वि अन्नस्स अन्नं वा॥ २.बृभा 5352; नडपेच्छं दट्टणं, अवस्स आलोयणाण सा कप्पे। कउयादी सो पेच्छति, ण ते वि पुरिमाण तो सव्वे॥
SR No.004291
Book TitleJeetkalp Sabhashya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKusumpragya Shramani
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2010
Total Pages900
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_jitkalpa
File Size15 MB
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